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३२२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ . (३) गुणश्रेणी-जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया गया है, अर्थात-जो कर्मदलिक अपने-अपने उदय के नियत स्थानों से हटाये गए हैं, उन्हें अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसाय द्वारा अपवर्तनाकरण से ऊपर की स्थिति में से उतारे हुए कर्म दलिकों को समय-क्रम से अन्तर्मुहूर्त के समय-प्रमाण स्थानकों में से पूर्व-पूर्व स्थानक से उत्तरोत्तर स्थानकों में असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप में दलिकों की स्थापना करना गुणश्रेणि है। सरल शब्दों में कहें तो गुणश्रेणि का कार्य है-कम समय में अधिक कर्म-प्रदेश भोगे जाएँ, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना। यह गुणश्रेणि दो प्रकार की हैउपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणि पर आरोहण करने वाली आत्मा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशमन करती है जबकि क्षपकश्रेणि पर आरोहण करने वाली आत्मा उन्हीं प्रकृतियों का क्षय करती है। पहला उपशमक और दूसरा क्षपक कहलाता है।
(४) गुण-संक्रमण-पहले बंधी हुई अशुभ कर्म प्रकृतियों को वर्तमान में बंध रही शुभ-प्रकृतियों में परिणत-रूपान्तरित कर देना गुणसंक्रमण कहलाता है। अर्थात्-बंधी हुई शुभ प्रकृति में अशुभ प्रकृति का दलिया विशुद्धतापूर्वक बहुत-बड़ी संख्या में डालना गुणसंक्रमण है। परन्तु यह संक्रमण सजातीय उत्तरप्रकृतियों का ही होता है, विजातीय प्रकृतियों का नहीं। आशय यह है कि सत्ता में रहे हुए अबध्यमान अशुभ-प्रकृति के दलिकों को बध्यमान शुभ प्रकृति में पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय में असंख्यगुणवृद्धि के रूप में संक्रमित कर देना गुण-संक्रमण है।
(५) अपूर्व-स्थितिबन्ध-पहले के अशुद्ध परिणामों के कारण कर्मों की दीर्घस्थिति बँधती थी, उसकी अपेक्षा इस गुणस्थान में तीव्र-विशुद्धि होने से अल्पअल्प स्थिति के कर्मों का बांधना अपूर्व स्थितिबन्ध है। अर्थात्-बाद के गुणस्थानों में केवल जघन्यस्थिति के कर्मों का बन्ध करने की स्थिति-योग्यता प्राप्त करना अपूर्व स्थितिबन्ध है।
स्थितिघातादि पांचों का विधान अपूर्व होने से अपूर्वकरण नाम यद्यपि स्थितिघात आदि पांचों बातें पहले के गुणस्थानों में भी होती हैं, तथापि आठवें गुणस्थान में ये अपूर्व ही होती हैं; क्योंकि पूर्व गुणस्थानों में अध्यवसायों की जितनी शुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा आठवें गुणस्थान में उनकी शुद्धि अधिक होती है। पहले के गुणस्थानों में स्थिति और रस का बहुत अल्प घात होता है, जबकि इस गुणस्थान में स्थिति और रस का अधिक घात होता है। पहले के गुणस्थानों में
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी जी), पृ. ३० __ (ख) चौद गुणस्थान, पृ. १३०
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