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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें
नगर के कोलाहल - संकुल अशान्त वातावरण से दूर, तथा कृत्रिम वायु और प्रकाश से रहित, प्राकृतिक हवा और प्रकाश से व्याप्त एवं नैसर्गिक सौन्दर्य से युक्त वन में प्रकृति की गोद में निर्मित एक चौदह मंजिली बिल्डिंग है। उसमें सबसे नीचे की मंजिल में अंडरग्राउंड तलघर है । वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता, इस कारण अंधेरा रहता है । सांस लेने लायक हवा तो मिल जाती है। इसके विपरीत चौदहवीं सबसे ऊपर की मंजिल में सूर्य का प्रकाश भी पर्याप्त है, तथा हवा भी प्रचुर मात्रा में है। उसमें तन-मन को स्वस्थ एवं सशक्त रखने वाली सभी प्रकार की प्राणवायु, आरोग्यप्रद प्राकृतिक सुख-शान्ति है। बीच की मंजिलों में उत्तरोत्तर शुद्ध वायु और प्रकाश बढ़ता जाता है।
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ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के लिए चौदह मंजिला गुणस्थान रूपी महाप्रासाद है। उसमें सबसे नीची मंजिल प्रगाढ़तम मोह - अन्धकार से व्याप्त निकृष्टतम अवस्था की है। सबसे ऊपर की चौदहवीं आध्यात्मिक मंजिल में चारित्रशक्ति का पूर्ण विकास है, निर्मोहता और आत्मस्वरूप में स्थिरता की पराकाष्ठा है । जीव की यह उच्चतम आत्म- -प्रकृतिक अवस्था है। निकृष्टतम अवस्था से निकल कर उच्चतम अवस्था तक पहुँचने के लिए जीव आवरण के पर्दे को हटाता जाता है और आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विकास करता जाता है। विकास की ऊपर-ऊपर की मंजिल तक पहुँचने के लिए जीव को अनेक अवस्थाओं से गुजरना होता है। जिस प्रकार थर्मामीटर की नली पर अंकित अंक उष्णता की मात्रा (डिग्री) को बताते हैं, वैसे ही पूर्वोक्त चौदह अवस्थाएँ जीव के आध्यात्मिक विकास की मात्रा को बताती हैं। दूसरे शब्दों में, इन अवस्थाओं को जीव के उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की परिमापक रेखाएँ कहना चाहिए ।
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