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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३१५ उतार देशोन-कोटि पूर्व तक होता रह सकता है। इसलिए छठे और सातवें दोनों गुणस्थानों की स्थिति मिलकर देशोन करोड़ पूर्व की है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भगवतीसूत्र के अनुसार-एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तथा सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है। इस गुणस्थान में ही चतुर्दश पूर्वधारी मुनि आहारकलब्धि का प्रयोग करते हैं। यह तथा इससे आगे के गुणस्थान मनुष्यगति के जीवों के ही होते हैं।
(७) अप्रमत्त-संयत-गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी जो संयत (मुनि) विकथा, कषाय आदि पूर्वोक्तं पन्द्रह प्रकार के प्रमादों का सेवन नहीं करते, वे अप्रमत्त-संयत हैं। उनकी आत्मविकासयुक्त उक्त अवस्था विशेष (स्वरूपविशेष), जो ज्ञानादि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के तरतम भाव से मुक्त होता है, वह अप्रमत्त-संयत-गुणस्थान कहलाता है। आशय यह है कि जिनके संज्वलन कषायों और नोकषायों का मन्द उदय होता है, तथा जिनके व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद नष्टं हो चुके हैं, ऐसे ध्यान, संयम और तप में लीन सकल संयम युक्त मुनि को
अप्रमत्तसंयत कहते हैं। यद्यपि संज्वलन कषाय का उदय छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक रहता है। इस गुणस्थान में भी उसका उदय है। परन्तु यहाँ छठे गुणस्थान जितनी उसमें तीव्रता नहीं होती, अपितु मन्दता होती है। इसीलिए इस गुणस्थान में विकथा, निद्रा आदि प्रमाद से रहित अवस्था होती है। इस गुणस्थान में अवस्थित साधक वर्ग प्रमाद से रहित होकर आत्म-साधना में लीन रहता है। इसी
१. (क) चौद गुणस्थान पृ. १२८-१२९, . (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ (मरुधरकेसरीजी), पृ. २६, २७ २. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६१, १६२ (ख) प्रमत्त संयतः प्राप्त-संयतः प्राप्तसंयमो यः प्रमाद्यति।
सोऽप्रमत्त संयतो यः संयमी न प्रमाद्यति॥
उभावपि परावृत्या स्यात्तमान्तर्मुहूर्तिकौ॥ -योगशास्त्र प्रकाश १, श्लो. ३४-३५ (ग) गुणस्थान क्रमारोह, स्वोपज्ञवृत्ति, गा. २७ वृत्ति, पृ. २० । (घ) पमत्तसंजयस्स णं पमत्तसंजये वट्टमाणस्स सव्वावि य णं पमत्तद्धाकालओ
केवच्चिरं होइ? मंडियपुत्ता! एगजीवं पडुच्च जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेण देसूणा पुव्वकोडी, णाणाजीवे पहुच्च सव्वद्धा। -भगवती सूत्र श. ३, उ. ४, सू. १५३
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