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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३०७
अर्थात् विरति नहीं होती । इसी कारण इस गुणस्थान के पूर्व 'अविरत' शब्द लगाया गया है। १
सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाने से उत्क्रान्ति की ओर मुख
इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने से आत्मा में विवेक की ज्योति जागृत हो जाती है। वह आत्मा - अनात्मा के अन्तर को समझने लगता है। अभी तक पुररूप में जो स्वरूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है। उसकी गति अतथ्य से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की ओर तथा अमार्ग से मार्ग की ओर हो जाती है। उसका मुख उत्क्रान्ति की ओर ऊर्ध्वमुखी और आत्मलक्ष्यी हो जाता है।
चतुर्थ गुणस्थान की कुछ विशेषताएँ
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इस गुणस्थान की अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं
(१) सम्यग्दृष्टि होने से प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि पांच लाक्षणिक गुणों से युक्त होता है । वह जिनवचन में शंका से, तथा शास्त्रोक्त शुद्ध अनुष्ठान के फल में संशय से युक्त नहीं होता ।
(२) उपर्युक्त गुणों के कारण वह तीव्रतम कषायी और विषयों के प्रति अत्यासक्त नहीं होता। हृदय में पापभीरु होता है, निर्दयता के भावों से कोई भी प्रवृत्ति नहीं करता ।
(३) निरीह और निरपराध जीवों की हिंसा नहीं करता। आत्मा को कर्म का कर्त्ता और फलभोक्ता मानता है, उसकी दृढ़ मान्यता होती है कि स्व- पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
(४) अपने दोषों की निन्दा और गर्हा दोनों करता है।
(५) पुत्र, स्त्री आदि सजीव तथा धन, मकान आदि निर्जीव पदार्थों पर मद (गर्व) तथा अत्यासक्ति नहीं होती ।
(६) उत्तम गुणों को यथाशक्ति ग्रहण करने में तत्पर रहता है।
(७) देव, गुरु, धर्म, तत्त्व एवं पदार्थ आदि जो जिनोपदिष्ट हैं, उनका स्वरूप भलीभांति न जानता हुआ भी उनके प्रति श्रद्धा रखता है । सत्य के प्रति दृढ़ता और असत्य के प्रति अरुचि होती है।
(८) आर्त्तजीवों की पीड़ा देखकर उसका उदय करुणा द्रवीभूत हो उठता है
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१. आत्म तत्व विचार, पृ. ४५४
२. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १५७
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