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३१० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
अशान्ति बढ़ जाती है, परन्तु वे लेनदार किसी प्रकार आने और तकाजा करने बंद हो जाएँ तो आदमी को कितनी राहत एवं शान्ति मिलती है? लगभग ऐसी ही स्थिति
औपशमिक सम्यक्त्व में होती है। औपशमिक सम्यग्दर्शन की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। एक व्यक्ति बीमारी के कीटाणुओं को निर्मूल दूर करता है, वह सदा के लिए पूर्ण स्वस्थ बन जाता है, दूसरा व्यक्ति कीटाणुओं का शोधन करता है, वह भी सहसा बीमारी से ग्रस्त नहीं होता; किन्तु तीसरा व्यक्ति रोग के कीटाणुओं को दबा देता है, उसका रोग निमित्त मिलते ही पुनः उभर आता है। इस तीसरे व्यक्ति के समान औपशमिक सम्यक्दर्शन की स्थिति होती है। अन्तर्मुहूर्त के लिए निरुद्धोदय . किये हुए दर्शनमोह के परमाणु काल-मर्यादा समाप्त होते ही पुनः सक्रिय हो जाते हैं। किंचित् समय के लिए बना सम्यग्दर्शनी पुनः मिथ्यादर्शनी हो जाता है। परन्तु यह निश्चित है कि जिसे एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श हुआ, उसका संसारभ्रमण अर्धपुद्गलपरावर्तन काल से अधिक नहीं होता। . जिस जीव के मिथ्यात्व-मोहनीय सत्ता में हो, और सम्यक्त्व कर्म के दलिक उदय में हो, परन्तु अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क और सम्यक्त्व-मोहनीय के प्रदेश का रस से उदय न हो, उसके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम से अधिक की है। यही कारण है कि औपशमिक तथा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अवस्था में साधक कदाचित् सम्यग्दर्शन-मार्ग से पराङ्मुख भी हो सकता है। किन्तु क्षायिक सम्यक्त्वी एक बार सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद कभी प्रतिपतित नहीं होता, क्योंकि उसने अनन्तानुबन्धी-कषाय-चतुष्क तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र तीनों प्रकार के दर्शनमोहनीय कर्म का पूर्णतया क्षय कर दिया है। जैसे-श्रेणिक नृप को अनाथीमुनि के निमित्त से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ था। ___जीव को जब पहली बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो, तब प्रायः औपशमिक सम्यक्त्व होता है। इस सम्यक्त्व को पाने के पश्चात् मिथ्यात्व में गये हुए जीव को पुनः सम्यक्त्व प्राप्त हो तो पूर्वोक्त तीनों में से कोई एक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। यह ध्यान रहे कि इन तीन सम्यक्त्वों में से एक समय में किसी एक सम्यक्त्व की उपलब्धि मनुष्यगतिस्थ जीवों को होती है, नरक, तिर्यञ्च और देवगति के जीवों को एक समय में औपशमिक और क्षायोपशमिक इन दोनों में से एक उपलब्ध हो सकता है, क्षायिक सम्यक्त्व नहीं। क्षायिक सम्यक्त्व का अधिकारी एकमात्र संज्ञिपंचेन्द्रिय मनुष्य ही है। क्षायिक सम्यक्त्व सादि-अनन्त है, शेष दोनों सम्यक्त्व सादि सान्त हैं।
१. (क) आत्मतत्वविचार से भावांश ग्रहण, पृ. ४५५, ४५६
(ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १५८
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