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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें २९९ नहीं हैं, फिर भी ऐसी आत्माओं में मिथ्या ही सही, ज्ञानादि गुणों का आंशिक विकास तो अवश्य होता है। यद्यपि ऊपर के गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में अशद्धि अधिक होती है, और शुद्धि कम होती है, फिर भी इसमें अल्पमात्रा में गुण व्यक्त होते हैं। जैसे कि यह मनुष्य है, यह तिर्यञ्च है, इत्यादि ज्ञान तथा निगोद के जीव को भी सर्दी गर्मी का स्पर्शेन्द्रिय ज्ञान भी अविपरीत रूप में होना शक्य है ही। अतः उक्त ज्ञान की अपेक्षा से उन जीवों का प्रथम गुणस्थान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि प्रबल मिथ्यात्व के उदय को लेकर आत्मा आदि के विषय में सम्यग्ज्ञानादि से रहित होने पर भी उन जीवों को अतात्विक विषय की व्यावहारिक अविपरीत प्रतीति होती है। अतः इस आंशिक गुण की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि होने पर भी उसमें प्रथम गुणस्थान की सम्भावना रहती है।
प्रश्न-यदि किसी न किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है, तो उसे सम्यग्दृष्टि या मिश्रदृष्टि कहने में क्या आपत्ति है? -
उत्तर-एक अंशमात्र की यथार्थ प्रतीति होने से जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहला सकता। क्योंकि शास्त्र में कहा गया है-जिनोक्त एक पद पर भी अश्रद्धा होने पर मिथ्यात्व कहा गया है, तब फिर जीवादि तत्वों की समग्र विपरीत दृष्टि या श्रद्धा में मिथ्यात्व क्यों नहीं कहा जाएगा? मिश्रदृष्टि भी इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मिश्रदृष्टि वाले जीव को जीवादि तत्वों के प्रति एकान्त श्रद्धा या रुचि भी नहीं होती, तथैव अश्रद्धा या अरुचि भी नहीं होती, इसलिए जिनोक्त एक पद के प्रति भी एकान्त अश्रद्धा होने से उसे मिश्रदृष्टि नहीं, किन्तु मिथ्यादृष्टि ही कहा जा सकता है। ___ मिथ्यात्व के आभिग्रहिक अनाभिग्रहिक तथा जीव को अजीव माने आदि कुल २५ भेदों का कथन हम पहले कर आए हैं-बन्ध के कारणों के प्रसंग में। जब तक इन २५ प्रकार के मिथ्यात्वों में से किसी भी प्रकार का मिथ्यात्व है तथा जब तक अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय एवं सम्यक्त्वमोहनीय, इन मोहकर्म की सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम नहीं हो जाता, तब तक जीव प्रथम गुणस्थान नहीं छोड़ पाता। इन प्रकृतियों के उदयभाव में प्रथम गुणस्थान है, अर्थात्-मिथ्यात्वमोहनीय का जब तक उदय है, तब तक जीव मिथ्यात्वी बना रहता है।३
१. (क) चौद गुणस्थान से भावांश ग्रहण, पृ. १२१ - (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ प्रस्तावना (पं० सुखलालजी) पृ.५-६ २. मिथ्यात्व के पच्चीस भेदों के लिए देखें-पंचम खण्ड में वर्णित बन्ध के प्रकरण में। ३. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १४७
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