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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण
जीवों की अनन्त विभिन्नताओं का चौदह भागों में वर्गीकरण
संसारी जीव अनन्त हैं; और उनको विभिन्न रूपों में विभक्त करने वाले कर्म हैं । संसारी जीवों के साथ कर्म प्रवाहरूप से अनादिकाल से लगे हुए हैं। जब तक कर्म हैं, तब तक एक गति से दूसरी गति में, एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करना पड़ता है। फिर उस-उस गति और योनि में तदनुरूप तथा अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शरीर, इन्द्रियाँ, वेद आदि मिलते हैं। साथ ही उनके पूर्वकर्मानुसार तथा वर्तमान में प्रत्येक मानसिक वाचिक कायिक प्रवृत्ति के साथ राग, द्वेष, मोह या कषाय के अनुरूप कर्मबन्ध होता रहता है। यही कारण है कि संसारी जीवों में शरीर, ज्ञान, उपयोग, कषाय, वेद, योग आदि में असंख्य विभिन्नताएँ हैं । कर्मावरण के कारण उनके ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्मशक्ति आदि आत्मिक गुणों में तरतमता है। उनकी शारीरिक-मानसिक क्षमता एवं योग्यता के कारण आत्मस्वरूप की स्थिति को प्राप्त करने की उनकी क्षमता और योग्यता में अन्तर पड़ता है। प्रत्येक जीव का बाह्य • और आभ्यन्तर जीवन भी पृथक् पृथक् होता है। शरीर का आकार, डील-डौल, चेष्टा, इन्द्रियाँ, रंग-रूप, विचारशक्ति, मनोबल, कायबल आदि विषयों में एक जीव दूसरे जीव से भिन्न है। यह भेद कर्मजन्य औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक आदि भावों के कारण तथा सहज पारिणामिक भाव को लेकर होता है। कर्मावरण के कारण उनके ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्मशक्ति में तरतमता होनी स्वाभाविक है। इसी कारण प्रत्येक जीव की शारीरिक और आत्मिक यानी, और आन्तरिक क्षमता की दृष्टि से उनमें अनन्त विभिन्नताएँ - विषमताएँ हैं । एक ही
बाह्य
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