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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण- १ २१३
यावत्कथित सामायिक संयम वह है, जो ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है। ऐसा संयम भरत - ऐरवत क्षेत्र में मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासन में ग्रहण किया जाता है । महाविदेह क्षेत्र में तो यह संयम, सब समय में लिया जाता है । इस संयम को अंगीकार करने वालों के चार महाव्रत और स्थितास्थित कल्प होते हैं।
(२) छेदोपस्थापस्थापनीय संयम - पूर्व संयम - पर्याय को छेद कर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना- पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा ( नये सिरे से ) संयम ग्रहण करने के समय से दीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना- - छेदोपस्थापनीय संयम है। इसके भी दो भेद हैं- सातिचार और निरतिचार । सातिचार छेदोपस्थापनीय - संयम वह है, जो किसी कारण से मूलगुणों - महाव्रतों का भंग हो जाने पर फिर से ग्रहण किया जाता है। निरतिचार छेदोपस्थापनीय उस संयम को कहते हैं, जिसे इत्वरसामायिक संयम वाले बड़ी दीक्षा के रूप में स्वीकारते हैं। यह संयम भरत, ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तथा चरम तीर्थंकर के साधु-साध्वीवर्ग के होता है, तथा जब एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थ में प्रविष्ट होते हैं। जैसे- भगवान् पार्श्वनाथ
साधु केशी, गांगेय आदि सन्तानीय साधु भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रविष्ट हुए थे, तब उन्होंने भी पुनर्दीक्षा के रूप में यह संयम अंगीकार किया था । ३
(३) परिहारविशुद्धि-संयम वह है, जिस संयम में परिहार नामक तपोविशेष से चारित्रशुद्धि प्राप्त की जाती है। परिहार - विशुद्धि तप की विधि संक्षेप में इस प्रकार
१. (क) समः राग- - द्वेष - वियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः। समस्य आयः समायः, समाय एवं सामायिकम् ।
(ख) समानां ज्ञान - दर्शन - चारित्राणामायः लाभः समायः, समाय एव सामायिकम् । - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका, पृ. १३०. (ग) आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड, कृतिक्रम व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा, इन १० कल्पों में जो स्थित हैं, वे स्थितकल्पी तथा इन १० में से शय्यातरपिण्ड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिक्रम इन चार कल्पों में जो नियम से स्थित और शेष ६ कल्पों में अस्थित होते हैं वे स्थितास्थित कल्पी कहलाते हैं। - पंचाशक प्रकरण १७ - आवश्यक हारि. वृत्ति पृ. ७९०
२. इसका वर्णन भगवतीसूत्र में है ।
३. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा, १२, विवेचन, (पं. सुखलालजी), पृ. ५८,५९ (ख) तंत्र
पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापना महाव्रतेष्वारोपणं यत्र चारित्रे तत् छेदोपस्थापनम् । - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १३०
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