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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २३१ सम्यक्त्व सम्भव नहीं है। संज्ञिपंचेन्द्रिय के सिवाय कोई भी जीव पर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्वी नहीं होता; क्योंकि इस अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाने वाले संज्ञी ही होते हैं, अन्य नहीं।
मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की प्ररूपणा तिर्यञ्चगति में आदि के पाँच गुणस्थान पाये जाते हैं; क्योंकि उनमें जाति स्वभाव से छठा (सर्वविरति) गुणस्थान संभव नहीं होता और सर्वविरति के सिवाय छठे आदि अगले गुणस्थानों की शक्यता नहीं है। देवगति और नरकगति में आदि के चार गुणस्थान माने जाते हैं, क्योंकि देव या नारक स्वभाव से ही विरति-रहित होते हैं
और विरति के बिना पंचम आदि आगे के गुणस्थान उनमें सम्भव ही नहीं हैं। मनुष्यगति, संजी, पंचेन्द्रिय जाति, भव्य और त्रसकाय, इन पाँच मार्गणास्थानों में प्रत्येक प्रकार के परिणामों की सम्भावना होने से सामान्य रूप से सभी गुणस्थान एक से लेकर (चौदह तक) पाये जाते हैं। . एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय , पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के लिए सामान्य है ही; क्योंकि ये सब अनाभोग (अज्ञान) के कारण तत्वश्रद्धाहीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं। दूसरा गुणस्थान इनमें अपर्याप्त अवस्था में ही होता है। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि की आयु का बन्ध हो जाने के पश्चात् जब किसी को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, तब वह उसे त्यागता हुआ सास्वादन-सम्यक्त्व सहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म ग्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक उनमें दूसरा गुणस्थान पाया जाता है। दूसरे गुणस्थान के समय वे करणअपर्याप्त होते हैं, लब्धि-अपर्याप्त नहीं; क्योंकि सभी लब्धि-अपर्याप्त जीव प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वी ही होते हैं। - तैजस्काय और वायुकाय, जो गतित्रस या लब्धित्रस कहे जाते हैं, उनको न तो औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है और न ही औपशमिक सम्यक्त्व को वमन करने
१. (क) तेणं भंते! असंनि-पंचेन्दिय तिरिक्खजोणिया किं इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, ' नपुंसकवेयगा वा? गोयमा नो इत्थिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुंसकवेयगा।
___-भगवती सूत्र __(ख) यद्यपि चासंज्ञि-पर्याप्ताऽपर्याप्तौ नपुंसको, तथापि स्त्री-पुंस-लिंगाकारमात्र
मंगीकृत्य स्त्रीपुंसावुक्ता विति। -पंचसंग्रह द्वार १ गा. २८ की टीका (ग) थी-नर-पणिंदि चरमा, चउ अणहारे दु संनि छ अपज्जा। . '. ते सुहुम-अपज विणा सासणि इत्तो गुणे वुच्छं॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ गा.१८ (घ) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १८ विवेचन, पृ० ७७ से ७९
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