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२८४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सामान्य से जो ११४ प्रकृतियों का बन्ध स्वामित्व बताया गया है, उनमें से कार्मण काययोग में मनुष्यायु और तिर्यंचायु को कम करने से सामान्य से ११२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में उक्त ११२ प्रकृतियों में से औदारिकमिश्र काययोग की तरह तीर्थंकर नामकर्म आदि ५ प्रकृतियों के कम करने से १०७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थान में इन्हीं १०७ प्रकृतियों में से सूक्ष्मत्रिक आदि १३ प्रकृतियों को कम करने से ९४ एवं चौथे गुणस्थान में इन ९४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि २४ प्रकृतियों को कम करने एवं तीर्थंकर नामकर्म आदि ५ प्रकृतियों को जोड़ने से ७५ प्रकृतियों का बन्धं होता है। जबकि तेरहवें . गुणस्थान में एकमात्र सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है।
आहारकद्विक में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग केवल छठे गुणस्थान में पाये जाते हैं। अत: छठे गुणस्थान के समान इन दोनों काययोगों में ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
आहारक काययोग में प्रमत्त और अप्रमत्त संयत ये दोनों गुणस्थान एक अपेक्षा से होते हैं। जिस समय चौदह पूर्वधारी मुनि आहारक शरीर करता है, उस समय वह प्रमादयुक्त होता है, तब होता है छठा गुणस्थान। अर्थात्-आहारक शरीर प्रारम्भ करते समय वह औदारिक के साथ मिश्र होता है. यानी आहारकमिश्र और आहारक इन दो योगों में छठा गुणस्थान होता है, किन्तु बाद में विशुद्धि की शक्ति से सातवें गुणस्थान में आता है, तब एकमात्र आहारकयोग ही होता है। आशय यह है कि आहारकमिश्र काययोग में छठा और आहारक योग में छठा और सातवाँ दोनों गुणस्थान होते हैं। ऐसी स्थिति में छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सातवें गुणस्थान में उक्त ६३ में से शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयश:कीर्ति और असातावेदनीय इन ६ प्रकृतियों को कम करने पर ५७ प्रकृतियों का यदि देवायु का बन्ध न करे तो ५६ प्रकृतियों का बन्ध करता है।२ ।
___ वैक्रिय काययोग में बन्धस्वामित्व प्ररूपणा वैक्रिय काययोग के अधिकारी देव और नारक होते हैं; क्योंकि इन दोनों का उपपात-जन्म होता है. तथा इसमें गुणस्थान देवगति के समान ही माने गए हैं, एवं १. छठेंगुणं वाहारे तम्मिसे णत्थि देवाऊ। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ११८ २. (क) अण चउवीसाइ विणा, जिण पणजुयसम्मि जोगिणो सायं।
विणु तिरि-नराउ कम्मे वि एवमाहारदुगि ओहो॥ १५॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. १५ विवेचन (मरुधर केसरीजी) से सारांश ग्रहण, पृ. ५४
से ६२ तक
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