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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २९३ होती है, और अन्य कषाय के मन्दतम उदय होने पर शुक्ल लेश्या होती है। लेश्या ६ हैं-(१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेजो, (५) पद्म एवं (६) शुक्ल।
कृष्णादि तीन लेश्याओं में बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा आदि की कृष्ण, नील, कापोत, इन तीन लेश्याओं में मिथ्यात्व आदि ४ गुणस्थान पाये जाते हैं। चतुर्थ कर्मग्रन्थ में कृष्णादि तीन लेश्याओं में छह गुणस्थान - प्राप्ति की प्ररूपणा की है, इसका रहस्य यह है कि पूर्व प्राप्त कृष्णादि तीन लेश्याएँ पांचवें, छठे गुणस्थान वाली हो सकती हैं, किन्तु तीन लेश्या वाले पाँचवाँ, छठा गुणस्थान प्राप्त नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है चतुर्थ कर्मग्रन्थानुसार कृष्णादि तीन . लेश्याओं वाले अधिक से अधिक छह गुणस्थान तक पाये जाते हैं। - कृष्णादि तीन लेश्या वाले १२० बन्धयोग्य प्रकृतियों में से आहारकद्विक को छोड़कर सामान्य से शेष ११८ कर्म प्रकृतियों को बांधते हैं; क्योंकि आहारकद्विक का बन्ध सातवें गुणस्थान के सिवाय अन्य गुणस्थानों में नहीं पाया जाता और गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म के सिवाय ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
. देवों और नारकों में द्रव्य लेश्याएँ अवस्थित,
किन्तु भाव लेश्याओं में परिवर्तन ... देवों और नारकों में वर्ण रूप द्रव्य लेश्याएँ होती हैं, क्योंकि उनकी. लेश्याएँ
अवस्थित होती हैं। भाव की अपेक्षा से वे लेश्याएँ उस-उस समय के भावानुसार होती हैं। इसलिए. भाव लेश्या उससे भिन्न भी हो सकती है। सातवें नरक में सम्यक्त्व प्राप्ति मानी है, वहाँ द्रव्य की अपेक्षा कृष्ण लेश्या, किन्तु भाव की अपेक्षा सम्यक्त्व प्राप्ति के समय शुद्ध भाव,लेश्या मानी है, क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति शुभ लेश्याओं में ही होती है। भगवती सूत्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि कृष्ण लेश्या वाले क्रियावादी (सम्यग्दृष्टि) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं मनुष्य चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं करते, जबकि मिथ्यादृष्टि चार प्रकार के आयुष्य का बन्ध करते हैं। यही बात नील और कापोत लेश्या के लिये भी समझनी चाहिए। सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक सर्व
१. पढम तिलेसासु छच्च।
- -चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. २३. २. ...किरियावादी (सम्यक्त्वी) पंचेन्दिय तिरिक्खजोणिया (मणुस्सा वि) णो तिरिक्ख
जोणियाउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेति, णो देवाउयं पकरेंति। अकिरियावादी अणाणियवादी वेणइयवादी चउव्विहं पि पकरेति। जहा कण्हलेस्सा एवं णीललेस्सावि, काउलेस्सावि।.....एवं मणुस्साण वि भाणियव्वा।- -भगवतीसत्र शतक ३० उ. १
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