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२८२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
निष्कर्ष यह है कि मनोयोग, वचनयोग-सहित औदारिक काययोग वालों के पर्याप्त मनुष्य में कहे गए बन्ध के समान ही बन्ध समझना; जबकि केवल वचनयोग या केवल काययोग का बन्धस्वामित्व एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में बताए गए बन्ध के समान समझना चाहिए।
काययोग के शेष भेदों का बन्ध-स्वामित्व औदारिकमिश्रकाययोग में बन्धस्वामित्व प्ररूपणा-औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य से आहारकद्विक, देवायु और नरकत्रिक, इन ६ प्रकृतियों को सामान्य बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम करने से ११४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व मानना चाहिए; क्योंकि विशिष्ट चारित्र के अभाव में तथा इस प्रकृति का ७वें गुणस्थान में ही बन्ध होने से औदारिकमिश्र काययोग में आहारकद्विक का बन्ध नहीं हो सकता। तथा देवायु और नरकत्रिक, इन ४ प्रकृतियों का बन्ध सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना नहीं हो सकता। फलतः इन ६ प्रकृतियों का बन्ध औदारिकमिश्र-काययोग में नहीं माना गया है।
प्रथम मिथ्यात्व-गुणस्थान के दौरान औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य बन्ध योग्य ११४ प्रकृतियों में से जिन-पंचक (तीर्थंकर नाम, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रिय शरीर और वैक्रिय-अंगोपांग, इन ५ प्रकृतियों) को कम करने पर १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। __ औदारिकमिश्र काययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान के समय मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु का बन्धस्वामित्व कुछ आचार्य नहीं मानते, कर्मग्रन्थकार मानते हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी इस मत का समर्थन पाया जाता है। जैसा कि गोम्मटसार में कहा गया है-"औदारिकमिश्र काययोग में औदारिक काययोगवत् रचना जानना। विशेष बात यह है कि इसमें देवायु, नरकायु, आहारकद्विक, नरकद्विक, इन ६ प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता। अतः १२० में से ६ प्रकृतियाँ कम करने पर सामान्य से ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उसमें भी मिथ्यात्व गुणस्थान में देवचतुष्क और तीर्थंकर नामकर्म, इन ५ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। अतः १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___ परन्तु कर्मग्रन्थकार का कहना है-औदारिकमिश्र काययोग के प्रथम गुणस्थान में १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में इसके ९४ प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद ही आयुबन्ध होना सम्भव
१. (क) मण-वय-जोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से ॥ १३॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ
(ख) तृतीय कर्मग्रन्थ विवेचन (मरुधर केसरी) से सारांश ग्रहण, पृ. ४८, ४९
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