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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २८९ . (९) पंचविध संयम में बन्ध-स्वामित्व-प्ररूपणा
संयम का अर्थ है-सावध योग से निवृत्ति, अथवा पंचमहाव्रतरूप यमों का पालन या पंचेन्द्रिय जय। संयम के ५ भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यातचारित्र। पंचविध संयम के साथ संयम के प्रतिपक्षी असंयम या अविरति का भी ग्रहण किया गया है।
अविरति का मतलब है-सम्यक्त्व तो हो, किन्तु चारित्र-पालन न हो सके। अतः इसमें आदि के चार गुणस्थान होते हैं। चौथे गुणस्थानों में सम्यक्त्व होने से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्भव है; जबकि आहारकद्विक का बन्ध संयम सापेक्ष होने से नहीं होता। इसलिए अविरति में सामान्य से आहारकद्विक के सिवाय ११८, प्रथम गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है।
सामायिक और छेदोपस्थानीय इन दो संयमों में छठे से लेकर नौवें गुणस्थान पर्यन्त ४ गुणस्थान होते हैं तथा इनमें आहारक-द्विक का बन्ध भी सम्भव है। अतः इन दोनों में सामान्य से ६५ प्रकृतियों का, तथा छठे से लेकर नौवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध स्वामित्व बन्धाधिकार के समान है। . परिहार-विशुद्धि संयम वाले के छठा और सातवां, ये दो गुणस्थान होते हैं। यद्यपि इस संयम के समय आहारकद्विक का उदय नहीं होता है, किन्तु बन्ध सम्भव है। अतः इसका बन्ध-स्वामित्व सामान्यरूप से ६५ प्रकृतियों का और विशेषरूप से बन्धाधिकार के समान छठे गुणस्थान में ६३ और सातवें गुणस्थान में ५९ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। देशचारित्र तथा सूक्ष्मसम्पराय-संयम में अपने-अपने नाम वाला, अर्थात् देशविरत में पाचवाँ एवं सूक्ष्म सम्पराय में दसवां गुणस्थान होता है। .. यथाख्यातचारित्र अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवों के होता है। अतः इसमें ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें तक, ये चार अन्तिम गुणस्थान होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में तो 'योग' का अभाव होने से बन्ध होता ही नहीं। मगर ग्यारह आदि ३ गुणस्थानों में बन्ध के कारणभूत योग का सद्भाव होता है। अतः योग के निमित्त से बंधने वाले सिर्फ एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। ..
(१०) सम्यक्त्व-मार्गणा में बन्ध स्वामित्व प्ररूपणा सम्यक्त्व के चार भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक (वेदक) और . अविरति सम्यक्त्व तथा सास्वादन सम्यक्त्व, मिश्र तथा मिथ्यात्व (सम्यक्त्वप्रतिपक्षी) ये तीनों भी सम्यक्त्व से सम्बन्धित सम्यक्त्व-मार्गणा के अवान्तर भेद हैं। १. तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. १८ विवेचन से सारांश ग्रहण, पृ.७२ से ७६ तक
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