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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया
बन्धस्वामित्व-कथन
मार्गणा : संसारी जीवों की विविध अवस्थाओं का अन्वेषण इस संसार में अनन्त-अनन्त जीव हैं। प्रत्येक जीव का बाह्य और आभ्यन्तर जीवन पृथक्-पृथक् होता है। शरीर तो इसका प्रथम मूलाधार है। उसके साथ-साथ उससे सम्बद्ध इन्द्रियाँ, मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ, अंगोपांग, कामवासना, क्रोधादि कषाय, लेश्या, भव्यत्व-अभव्यत्व, दर्शन, ज्ञान, संयम, संज्ञित्व-अंसज्ञित्व, आहारकत्व-अनाहारकत्व, आकार (संस्थान), रंग-रूप, विचारशक्ति, मनोबल, प्राणबल आदि विभिन्न बाह्य और अन्तरंग विषयों में एक जीव दूसरे जीव से भिन्न दृष्टिगोचर होता है। यह सारी भिन्नता कर्मजन्य है। कर्मों के बन्ध का सारा दारोमदार परिणामों पर आधारित है। अतः कर्मजन्य विभिन्नता पांच भावों को लेकर होती है, जिन्हें कर्मविज्ञान ने औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और सहज पारिणामिक भाव की संज्ञा प्रदान की है। कर्म वैज्ञानिक महापुरुषों ने औदयिकादि भावों के माध्यम से होने वाली इन कर्मजन्य अनन्त-अनन्त विभिन्नताओं को १४ विभागों में विभाजित किया है। ये चौदह विभाग चूँकि जीवों की विभिन्नताओं का सर्वेक्षण या अन्वेषण-गवेषण करने के लिए माध्यम हैं। इन्हीं चौदह विभागों के उत्तरभेद ६२ होते हैं, जिनसे प्रत्येक जीव वर्ग के सामान्यरूप से बाह्य-आभ्यन्तर जीवन का बारीकी से सर्वेक्षण हो जाता है। जीवों के इन बाह्य-आभ्यन्तर जीवन विभागों के अन्वेषण-सर्वेक्षण करने को कर्मवैज्ञानिकों ने मार्गणा कहा है। मार्गणा की परिभाषा की गई है-गति आदि जिन अवस्थाओं को लेकर अपने आत्मप्रदेशों के साथ कर्मों से बद्ध जीव में गुणस्थान, जीवस्थान आदि की मार्गणा, अर्थात्विचारणा, गवेषणा, अन्वेषणा, ऊहापोह, मीमांसा या विचार विमर्श किया जाता है,
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