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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व - कथन २६७
प्रकृतियों को नारक जीव भवस्वभाव के कारण बाँधते ही नहीं हैं। ये तो पहले ही सामान्य नरकगति में बंधयोग्य में कम की जा चुकी हैं। शेष रही नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडक संस्थान और सेवार्त संहनन - ये प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के निमित्त से बँधती हैं, और सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है । अतः सास्वादन गुणस्थान में इन चार प्रकृतियों को मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती नारक जीवों की बन्धयोग्य. १०० प्रकृतियों में से कम करने पर दूसरे गुणस्थान में नारकजीवों के बन्धयोग्य ९६ प्रकृतियाँ कही हैं।
मिश्र एवं अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती में ७० और ७२ प्रकृतियों का बन्ध
अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क आदि २६ प्रकृतियों को छोड़कर मिश्र गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का, तथा अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। इसी प्रकार नरकगति की यह सामान्य बन्धविधि रत्नप्रभादि तीन नरकभूमियों के नारकों के चारों गुणस्थान में भी समझनी चाहिए। तथा पंकप्रभा आदि नरकों में तीर्थंकर नामकर्म के बिना सामान्य बन्धविधि पूर्ववत् समझनी चाहिए।
मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकों के ७० कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से बंधने वाली अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मध्यमसंस्थानचतुष्क, मध्यम- संहनन-चतुष्क, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, स्त्यानर्द्धि, उद्योत और तिर्यञ्चत्रिक, इन २५ प्रकृतियों का मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होने से बंध नहीं होता है। दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना या क्षय हो जाता है, इसलिए अनन्तानुबन्धी के कारण बंधने वाली उक्त २५ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता तथा तीसरे मिश्र गुणस्थान में रहने वाला कोई भी जीव आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है। अतः मनुष्यायु का भी बन्ध नहीं हो सकता है। अतः दूसरे गुणस्थानवर्ती नारक जीवों के बन्धयोग्य ९६ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी आदि पूर्वोक्त २५ प्रकृतियां एवं मनुष्यायु यों कुल २६ प्रकृतियाँ कम करने से मिश्रगुणस्थानवर्ती नरकगति के जीवों के ७० प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । ३
१. तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ४ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) पृ. १६
२. (क) सम्मामिच्छदिट्ठी आउयबंधं पि न करेइ त्ति ।
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(ख) सम्मेव तित्थबंधो ।
३. (क) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. ५ विवेचन ( मरुधरकेसरी जी) पृ. १६,१७ (ख) विणु अणछवीस मीसे बिसयरि सम्मम्मि जिणनराउ जुया । इय रयणाइसु भंगो पंकाइसु तित्थयरहीणो ॥ ५ ॥
- गो. क. गा. ९२
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- तृतीय कर्मग्रन्थ
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