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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २७७ उत्पन्न होते हैं। अतएव इन तीन निकायों के देवों के तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता।
इसलिए ज्योतिष्क आदि तीन निकायों के देवों के सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध न होने से ७२ के बजाय ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सनत्कुमार कल्प से पांच अनुत्तरविमानवासी देवों के
बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा सनत्कुमार नामक तृतीय देवलोक (कल्प) से नवग्रैवेयक तक के देवों का बन्धस्वामित्व-निरूपण दो विभागों में किया गया है। प्रथम विभाग में सनत्कुमार से लेकर सहस्रार नामक देवलोक तक के देवों का, तथा दूसरे विभाग में आनत देवलोक से लेकर नवग्रैवेयक तक के देवों का बन्धस्वामित्व कहा गया है। यद्यपि पांच अनुत्तरविमानवासी देवों का यहाँ कथने नहीं किया गया है, तथापि अनुत्तरविमानों में सदैव सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं और उनके सिर्फ चतुर्थ गुणस्थान ही होता है। इसलिए देवों के सामान्यतया चतुर्थ गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है, वैसे इनके भी उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध समझ लेना चाहिए। . सनत्कुमार से सहस्रार देवलोक तक की बन्धस्वामित्व प्ररूपणा . . पूर्वोक्त दो विभागों में से प्रथम विभाग के सनत्कुमार से लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देव जैसे रत्नप्रभा नरकभूमि के नारक सामान्य से और गुणस्थानों में जितनी प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध इन देवों के समझना चाहिए। ये देव भी उन-उन देवलोकों से च्यवकर एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनके भी एकेन्द्रिय-प्रायोग्य-एकेन्द्रियजाति, स्थावरनाम और आतपनाम, इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। फलतः सामान्य से ये १०१ प्रकृतियों को बांधते. है। मिथ्यात्व-गुणस्थान में तीर्थंकर-नामकर्म को छोड़कर १००, सास्वादनगुणस्थान में नपुंसक-चतुष्क के सिवाय ९६ और मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि २६ प्रकृतियों के सिवाय ७० और अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मनुष्यायु एवं तीर्थंकर नामकर्म का भी बन्ध होने से ७२ प्रकृतियों को बाँधते हैं।
१. (क) निरयव्व सुरा नवरं आहे मिच्छे एगिदि तियसहिया।
कप्पदुगे वि य एवं जिणहीणो जोइ-भवण-वणे॥१०॥ .. -तृतीय कर्मग्रन्थ । (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. १० विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. ३५ से ३७ तक
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