________________
मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २६१ • मार्गणाएँ जीवों के आध्यात्मिक उत्कर्ष-अपकर्ष या विकास-अविकास न बतलाकर उनके स्वाभाविक वैभाविक रूपों का भिन्न-भिन्न प्रकार से विश्लेषण (Analysis) करती हैं; जबकि गुणस्थान जीवों के विकासक्रम को-विकास की क्रमिक अवस्थाओं को बताता है। मार्गणाएँ सहभावी हैं, जबकि गुणस्थान क्रमभावी है। गुणस्थान एक जीव में एक ही हो सकता है। - जीव अपने आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियों को पार करता हुआ विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है। यानी पूर्व-पूर्व गुणस्थानों को छोड़ता हुआ उत्तरोत्तर आगे-आगे बढ़ता जाता है और कर्मरहित होकर सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर सकता है, किन्तु मार्गणाएँ पूर्व-पूर्व को छोड़कर उत्तरोत्तर प्राप्त नहीं की जा सकतीं, और न ही उनसे आध्यात्मिक विकास की सिद्धि के सोपान पर चढ़ा जा सकता है। तेरहवें गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त घातिकर्मरहित सर्वज्ञ केवली भगवान् में कषाय मार्गणा के सिवाय शेष सभी मार्गणाएँ होती हैं; जबकि गुणस्थान तो सिर्फ तेरहवाँ ही होता है। अन्तिम सर्वकर्मरहित गुणस्थाने अवस्थित जीव में भी तीन चार मार्गणाओं के सिवाय बाकी की प्रायः सभी मार्गणाएँ होती हैं, जबकि गुणस्थान सिर्फ चौदहवाँ ही होता है।
अतः मार्गणाओं और गुणस्थानों में इतना अन्तर होते हुए भी कर्मविज्ञानविज्ञों ने मार्गणाओं में गुणस्थानों की प्ररूपणा करके उनमें मूलकर्म प्रकृति और उनकी उत्तर प्रकृतियों में से बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियों की चर्चा-विचारणा की है। यद्यपि द्वितीय कर्मग्रन्थ में केवल गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तर-कर्म प्रकृतियों के बन्ध की चर्चा तथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों में बन्धहेतु, लेश्या तथा बन्ध, उदय आदि की पर्याप्त चर्चा की गई है। प्रस्तुत में १४ मार्गणाओं की अपेक्षा विभिन्न गुणस्थानवी जीवों में बन्धस्वामित्व (किन-किन उत्तरप्रकृतियों के बन्ध कर्तृत्व) की प्ररूपणा की है।
चौदह मार्गणाओं के नाम यद्यपि चौदह मार्गणाएँ और उनका स्वरूप हम पूर्व अध्याय में स्पष्ट कर चुके है। फिर भी १४ मार्गणाओं का नाम बताना आवश्यक है-(१) गति मार्गणा, (२) न्द्रिय-मार्गणा, (३) कायमार्गणा, (४) योग-मार्गणा, (५) वेद-मार्गणा, (६)
पाय मार्गणा, (७) ज्ञान मार्गणा, (८) संयम-मार्गणा, (९) दर्शन-मार्गणा, (१०) लेश्या-मार्गणा, (११) भव्य-मार्गणा, १२) सम्यक्त्व-मार्गणा, (१३) संज्ञि-मार्गणा और (१४) आहार मार्गणा।
तृतीय कर्मग्रन्थ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. ३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org