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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - २ २३७ सम्यग्दृष्टि, ये पांच गुणस्थान हैं। इस प्रकार मार्गणास्थानों में गुणस्थान का सर्वेक्षण पूर्ण हुआ।
पहला गुणस्थान सब प्रकार के असंज्ञियों को होता है और दूसरा कुछ ही असंज्ञियों को, जो करण - अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि ही हैं, लब्धि- अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि में कोई जीव सासादन भाव - सहित आकर जन्म ग्रहण नहीं करता । इस अपेक्षा से असंज्ञियों में आदि के दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पाये जाने वाले ६ गुणस्थानों में से आदि के ४ गुणस्थान तो ऐसे हैं, जिनकी प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाद भी उक्त तीन लेश्याएँ होती हैं, किन्तु पाँचवाँ और छठा, ये दो गुणस्थान ऐसे नहीं हैं। ये दो सम्यक्त्वमूलक विरतिरूप हैं, इसलिए इनकी प्राप्ति तेज आदि शुभ लेश्याओं के समय होती है, कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं। फिर भी प्राप्ति हो जाने के बाद परिणामशुद्धि कुछ घट जाने पर दो गुणस्थानों में अशुभ लेश्याएँ भी आ जाती हैं।
योगों के पन्द्रह भेद
विशेषरूप से योगों के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं- सत्य, असत्य, मिश्र (सत्यासत्य) और असत्यामृषा, ये ४ भेद मनोयोग के हैं। वचनयोग भी उक्त चार प्रकार का ही है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक, ये तीन भेद शुद्ध काययोग के, तथा ये ही तीन भेद मिश्र काययोग के एवं कार्मण काययोग यों काययोग के ७ भेद हुए। सब मिलाकर पन्द्रह प्रकार योग के हैं । १
कार्मण काययोग की तरह तैजस् काययोग क्यों नहीं?
आगमों में पाँच प्रकार के शरीरों में तैजस् नामक एक और शरीर बताया गया है, जो शरीर में तेजस्विता, तेज-पुंज तथा ऊर्जाशक्ति एवं पाचनशक्ति को बढ़ाता है, तथा विशिष्ट लब्धिधारी तपस्वी, जिसकी सहायता से तेजोलेश्या का प्रयोग करते हैं। अतः कार्मण काययोग के समान तैजस् काययोग को क्यों नहीं माना गया ?
इस शंका का समाधान यह है कि तैजस शरीर और कार्मण शरीर दोनों का सदा साहचर्य रहता है। आशय यह है कि औदारिक आदि अन्य शरीर तो कभी-कभी कार्मण शरीर को छोड़ भी देते हैं, परन्तु तैजस् शरीर उसे कभी नहीं छोड़ता। इसलिए वीर्यशक्ति का जो व्यापार कार्मण शरीर के द्वारा होता है, वही नियम से तैजस् शरीर
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(क) सच्चेयर - मीस - असच्च - मोस - मण - वइ विउव्वियाहारा । उरलं मीसा कम्मण, इ. जोगा कम्ममणहारे ॥ २४ ॥
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- कर्मग्रन्थ भा. ४
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