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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २३९
- तिर्यश्चगति, स्त्रीवेद, अविरति, सासादन, तीन अज्ञान, उपशम सम्यक्त्व, अभव्य और मिथ्यात्व, इन दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय तेरह योग होते हैं। देवगति और नरकगति में उक्त तेरह में से औदारिक द्विक के सिवाय शेष ग्यारह योग होते हैं।
तिर्यंचगति आदि उपर्युक्त दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय शेष सब योग होते हैं। इनमें से स्त्रीवेदं और उपशम-सम्यक्त्व को छोड़कर शेष आठ मार्गणाओं में आहारक योग न होने का कारण सर्वविरति का अभाव ही है। स्त्री वेद में सर्वविरति की सम्भावना होने पर भी आहारक योग न होने का कारण स्त्रीजाति को दृष्टिवाद (जिसमें चौदह पूर्व हैं) पढ़ने का निषेध है। उपशम-सम्यक्त्व में सर्वविरति सम्भव है, तथापि उसमें आहारक योग न मानने का कारण यह है कि उपशम-सम्यक्त्वी आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करते।।
तिर्यञ्चगति में तेरह योग इस प्रकार हैं-उसमें चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग, इस प्रकार से नौ योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते हैं। वैक्रिय काययोग और वैक्रिय मिश्र काययोग पर्याप्त अवस्था में होते तो हैं, किन्तु सब तिर्यंचों को नहीं, वैक्रिय लब्धि से वैक्रिय शरीर बनाने वाले कुछ तिर्यंचों को ही होते हैं। कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र, ये दो योग तिर्यंचों को अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। .. स्त्रीवेद में तेरह योग इस प्रकार हैं-मन के चार, वचन के चार, दो वैक्रिय, एक औदारिक, ये ११ योग मनुष्य-तिर्यंच स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, वैक्रिय-मिश्र काययोग देवस्त्री को अपर्याप्त अवस्था में, औदारिक-मिश्र-काययोग मनुष्य-तिर्यञ्चस्त्री को अपर्याप्त अवस्था में तथा कार्मण काययोग पर्याप्त मनुष्यस्त्री को केवलिसमुद्घात-अवस्था में होता है। - अविरति सम्यग्दृष्टि, सास्वादन, तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्व, इन ७ मार्गणास्थानों में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय, ये १० योग पर्याप्तअवस्था में होते हैं। कार्मण काययोग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम क्षण में होता है। औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र. ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में होते हैं।
१. स्त्रीवेद से यहाँ मतलब है-द्रव्य स्त्री वेद से, उसी में आहारक योग का अभाव घटित हो सकता है।
-संपादक २. (क) तिरि-इत्थि-अजय-सासण-अनाण-उवसम-अभव्व-मिच्छेसु।। .. . तेराहार दुगूणा ते उरल-दुगूण-सुर-नरए॥२६॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ
(ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा.२६ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० ९६, ९७
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