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२३८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ । के द्वारा भी होता है। अतः कार्मण काययोग में ही तैजस् काययोग का समावेश हो जाता है। इसलिए इसको पृथक् नहीं गिनाया गया।
निश्चय दृष्टि से सत्य -असत्य ये दो योग ही पूर्वोक्त मनोयोग तथा वचनयोग के चार-चार भेद व्यवहार नय की अपेक्षा से हैं. क्योंकि निश्चय दृष्टि से सबका समावेश सत्य और असत्य दो भेदों में ही हो जाता है अर्थात्-जिस मनोयोग या वचनयोग में छल-कपट की या वंचना की बुद्धि नहीं है, वह मिश्र हो, चाहे असत्यामृषा हो, उसे सत्य-मनोयोग या सत्यवचनयोग ही समझना चाहिए। इसके विपरीत जिस मनोयोग या वचनयोग में छल-कपट या वंचना की बुद्धि हो या अंश हो, वह असत्य मनोयोग या असत्य वचनयोग ही है।
कार्मण काययोगः अनाहारक अवस्था में पन्द्रह योगों में से कार्मण काययोग ही ऐसा है, जो अनाहारक-अवस्था में पाया जाता है; शेष चौदह योग आहारक-अवस्था में ही होते हैं। परन्तु यह नियम नहीं है कि अनाहारक अवस्था में कार्मण काययोग होता ही है; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक अवस्था होने पर भी किसी तरह का योग नहीं होता। और यह भी नियम नहीं है कि कार्मण काययोग के समय अनाहारक अवस्था अवश्य होती है, क्योंकि उत्पत्तिक्षण में कार्मण काययोग होने पर भी जीव अनाहारक नहीं होता, बल्कि वह उसी योग के द्वारा आहार लेता है। परन्तु यह नियम तो अबाधित है कि जब भी अनाहारक-अवस्था होती है, तब कार्मण योग के सिवाय अन्य योग होता ही नहीं। इसी से अनाहारक मार्गणा में एकमात्र कार्मण काययोग माना गया है।
मनुष्यगति, पंचेन्द्रियगति, त्रसकाय, काययोग, अचक्षुदर्शन, पुरुषवेद, नपुसंकवेद, चार कषाय, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, संज्ञी, छह लेश्याएँ
आहारक, भव्य, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक, इन छब्बीस मार्गणाओं में सब (पन्द्रहों) योग होते हैं।
उपर्युक्त छब्बीस मार्गणाओं में पन्द्रह योग इसलिए कहे गए हैं कि इस सब मार्गणाओं का सम्बन्ध मनुष्य पर्याय के साथ है और मनुष्य पर्याय में सभी योग सम्भव हैं। १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ९४ २. वही, गा.१३ विवेचन, पृ० ९१ ३. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ०९४, ९५ ४. (क) नर-गइ-पणिंदि-तस-तणु-अचक्खु-नर-नपु-कसाय-सम्म-दुगे।
सन्नि-छलेसाहारग-भव-मइ-सुओहिदुगे सव्वे॥२५॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. २५ विवेचन, (पं. सुखलाल जी), पृ. ९५
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