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२४४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
हैं । इसलिए इन सब में बारह उपयोग माने जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त वेद पाये जाने का मतलब द्रव्य - वेद से है, क्योंकि भाववेद तो नौवें गुणस्थान तक ही रहता है।
चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, ये दो बारहवें गुणस्थान पर्यन्त, कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ छठे गुणस्थान पर्यन्त, तेज, पद्म, ये दो लेश्याएँ सातवें गुणस्थान पर्यन्त और कषायोदय अधिक से अधिक दसवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है; इस कारण चक्षुर्दर्शन आदि उक्त ग्यारह मार्गणाओं में केवलद्विक के सिवाय शेष दस उपयोग होते हैं।
चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि - पंचेन्द्रिय में मति और श्रुत, दो अज्ञान, तथा चक्षु और अचक्षु दो दर्शन, यों कुल चार उपयोग होते हैं । चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रिय में विभंगज्ञान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, तथा उनमें सम्यक्त्व न होने के कारण सम्यक्त्व के सहचारी पांच ज्ञान और अवधि और केवल दो दर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते। इस प्रकार कुल आठ उपयोग के सिवाय शेष चार उपयोग होते हैं।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और पाँच प्रकार के स्थावर में उक्त चार में से चक्षुर्दर्शन के सिवाय तीन उपयोग होते हैं; क्योंकि एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त आठ मार्गणाओं में चक्षुर्दर्शन (आँख न होने से ) और सम्यक्त्व न होने से पाँच ज्ञान, दो दर्शन ( अवधि और केवल ) और तथाविध योग्यता न होने के कारण विभंगज्ञान, इस तरह कुल नौ उपयोग नहीं होते, शेष तीन उपयोग होते हैं।
तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्वद्विक ( मिथ्यात्व और सासादन), इन छह मार्गणाओं में तीन अज्ञान, दो दर्शन, यों कुल पांच उपयोग होते हैं। क्योंकि अज्ञानत्रिक आदि उपर्युक्त ६ मार्गणाओं में सम्यक्त्व तथा विरति नहीं है; इसलिए उनमें ५ ज्ञान और अवधि - केवल दर्शन, इन सात के सिवाय शेष पांच उपयोग होते
हैं।
सैद्धान्तिक मतानुसार- विभंगज्ञानी में अवधिदर्शन मानते हैं और सास्वादन गुणस्थान में अज्ञान न मानकर ज्ञान ही मानते हैं। इसलिए इस जगह अज्ञानत्रिक आदिः ६ मार्गणाओं में अवधिदर्शन नहीं माना है। और सास्वादन - मार्गणा में ज्ञान नहीं माना है, वह कार्मग्रन्थिक मतानुसार समझना चाहिए।
(क) ति अनाण नाणपण चउ दंसण बार जियलक्खणुवओगा ।
विणु मणनाण दु केवल, नव सुर- तिरि-निरंय- अजएसु ॥ ३० ॥ (ख) तस जोय - वेय- सुक्काहार - नर- पणिंदि सन्नि भवि सव्वे । नयणेयर - पण-लेसा-कसाइ दस केवल दुगूणा ॥३१ ॥ - चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ३०, ३१ विवेचन ( पं० सुखलाल जी), पृ० १०५, १०६
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