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२५० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ.
काल से - असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं, मनुष्य अधिक से अधिक उतने पाये जा सकते हैं। क्षेत्र से - सात रज्जु -प्रमाण घनीकृत लोक की अंगुलमात्र सूचि - श्रेणि के प्रदेशों के तीसरे वर्गमूल के साथ गुणना, गुणने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसका सम्पूर्ण सूचि - श्रेणिगत प्रदेशों में भाग देना, भाग देने पर जो संख्या लब्ध होती है, एक-कम-वही संख्या, मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या है । २
उनसे नारक असंख्यातगुणे हैं । परन्तु नारकों की असंख्यात संख्या मनुष्यों की असंख्यात संख्या से असंख्यात - गुनी अधिक है। उनसे भवनपति देव असंख्यात हैं। उनसे व्यन्तरनिकाय के देव भी असंख्यात हैं। उनसे ज्योतिषी देवों की संख्या असंख्यात है, और उनसे वैमानिक देव असंख्यात हैं ।
तात्पर्य यह है - भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, सब देव मिलकर नारकों से असंख्यातगुणे होते हैं । देवों से तिर्यञ्चों के अनन्तगुणे होने का कारण हैवनस्पतिकायिक जीव संख्या में अनन्त होते हैं, और वे तिर्यञ्च हैं । ३
इन्द्रिय-मार्गणा का अल्प - बहुत्व - पंचेन्द्रिय जीव सबसे थोड़े हैं। पंचेन्द्रियों से चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रियों से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रियों से द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। द्वन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्त - गुणे हैं। ·
कायमार्गणा का अल्प - बहुत्व - सकायिक जीव अन्य सब काय के जीवों से थोड़े हैं। इनसे अग्निकायिक जीव असंख्यातगुणे हैं। अग्निकायिकों से पृथ्वीकायिक, पृथ्वी कायिकों से जलकायिक और जलकायिकों से वायुकायिक विशेषाधिक हैं । वायुकायिकों से वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं।
योग - मार्गणा का अल्प - बहुत्व - मनोयोग वाले अन्य योग वालों से थोड़े हैं। वचनयोग वाले उनसे असंख्यातगुणे हैं, और काययोग वाले वचनयोग वालों से अनन्तगुणे हैं । मनोयोग संज्ञी जीवों में ही पाया जाता है, इसलिए संज्ञी जीव अन्य सब जीवों से अल्प ही हैं।
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१. काल से क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म माना गया है, क्योंकि अंगुल - प्रमाण सूचि श्रेणि के प्रदेशों की संख्या असंख्यात अवसर्पिणी के समयों के बराबर मानी गई है।
- कर्मग्रन्थ गा. ३७ विवेचन, पृ० ११७
२. सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरे हवड़ खित्तं ।
गुढी मित्ते, ओप्पणी उ असंखेज्जा ॥ ३७ ॥ - आवश्यकनिर्युक्ति पृ०३३/१ ३. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ३७ का विवेचन, से सारांश उद्धृत (पं० सुखलाल जी )
पृ० ११५ से १२१
(ख) नर - निरय- देव - तिरिया, थोवा दु असंखणंत-गुणा ॥ ३७ ॥
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- चतुर्थ कर्मग्रन्थ
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