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२४८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
यहाँ विशेषरूप से बताये गए हैं; क्योंकि मनोयोग-वचनयोग रहितं काययोग केवल केन्द्रिय में पाया जाता है, उसी को लेकर यह कथन है । २
मार्गणाओं में लेश्याओं की प्ररूपणा.
छह लेश्या मार्गणाओं में अपना-अपना स्थान है। एकेन्द्रिय, असंज्ञि पंचेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय, इन पांच मार्गणाओं में आदि की चार लेश्याएँ हैं। नरकगति, विकलेन्द्रिय - त्रिक, अग्निकाय और वायुकाय, इन छह मार्गणाओं में आदि की तीन लेश्याएँ हैं। छह लेश्याओं में स्व-स्व-स्थान है, इसका तात्पर्य यह है कि एक समय में एक जीव में एक ही लेश्या होती है; दो नहीं क्योंकि छहों लेश्याएँ समानकाल की अपेक्षा से परस्पर एक दूसरे से विरुद्ध हैं। एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त पांच मार्गणाओं में कृष्णलेश्या से तेजोलेश्या तक चार
श्याएँ बताई गई हैं। इनमें से पहली तीन तो भव - प्रत्यय होने के कारण सदैव पाई जा सकती हैं; परन्तु तेजोलेश्या के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं, वह सिर्फ अपर्याप्तअवस्था में पाई जाती है। इसका कारण यह है कि जब कोई तेजोलेश्या वाला जीव मरकर पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय में जन्मता है, तब उसे कुछ काल तक पूर्वजन्म की मरणकालीन तेजोलेश्या रहती है।
नरकगति आदि उपर्युक्त छह मार्गणाओं के जीवों में ऐसे अशुभ परिणाम होते हैं,. जिससे कि कृष्ण आदि तीन लेश्याओं के सिवाय अन्यं लेश्याओं के अधिकारी नहीं बनते । यथाख्यातचारित्र, सूक्ष्मसम्पराय चारित्र और केवलद्विक, इन चार मार्गणाओं में शुक्ललेश्या है, शेष मार्गणाओं में छहों लेश्याएँ होती हैं।
यथाख्यात आदि उपर्युक्त चार मार्गणाओं में परिणाम इतने शुद्ध होते हैं कि जिससे उनमें शुक्ललेश्या के सिवाय अन्य लेश्या का सम्भव नहीं है।
गाथा ३५ वीं, और ३६ वीं में कुल मिलाकर १७ + ४ = २१ मार्गणाएँ हुईं। इन २१ मार्गणाओं को छोड़कर शेष निम्नोक्त ४१ मार्गणाओं में छहों लेश्याएँ पाई जाती हैं । . इकतालीस मार्गणाएँ ये हैं- (१) देवगति, (२) मनुष्यगति, (३) तिर्यंचगति, (४) पंचेन्द्रिय जाति, (५) त्रसकाय, (६-८) तीन योग, (९-११) तीन वेद, (१२-१५) .
१. काययोग में भी १६, २२, २५, ३१वीं गाथा में १४ जीवस्थान, १३ गुणस्थान, १५ योग, १२ उपयोग बताए गए हैं, वे सामान्य अपेक्षा से हैं, यहाँ विशेष ( मन-वचनयोग रहित) काययोग की अपेक्षा से विधान है।
२. (क) दो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ठे दु चउ चउ वयणे ।
दु पण तिन्न काये जियगुणजोगोवओगन्ने ॥ ३५ ॥
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- चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ३५ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० ११० से ११३ तक
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