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२४२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ इस प्रकार की मनोरचना के द्वारा अमुक अर्थ का ही चिन्तन किया हुआ होना चाहिए। __परिहार-विशुद्ध और सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र (संयम) में मन के चार, वचन के चार और एक औदारिक, ये नौ योग होते हैं। मिश्र (सम्यग् मिथ्या) दृष्टि में उक्त नौ और एक वैक्रिय, ये कुल १० योग होते हैं। देशविरति में ये नौ और तथा वैक्रियद्विक, यों कुल ११ योग होते हैं। यथाख्यातचारित्र में चार मन के, चार वचन के, कार्मण और औदारिकद्विक, ये ११ योग होते हैं। _कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग छद्मस्थ के लिए अपर्याप्त-अवस्थाभावी हैं, किन्तु चारित्र कोई अपर्याप्त-अवस्था में नहीं होता। वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग वैक्रिय लब्धि का प्रयोग करने वाले मनुष्य को ही होते हैं। परन्तु परिहारविशुद्धि संयम तथा सूक्ष्म-सम्पराय-संयम वाला कभी वैक्रियलब्धि का प्रयोग नहीं करता। आहारक और आहारकमिश्र ये दोनों योग चतुर्दश-पूर्वधर प्रमत्त मुनि को ही होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्ध चारित्र का अधिकारी कुछ कम दश पूर्व का पाठी होता है, और सूक्ष्म सम्पराय चारित्र वाला चतुर्दश पूर्वधर होने पर भी अप्रमत्त ही होता है। इस कारण परिहार-विशुद्ध और सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र में कार्मण
औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र, ये ६ योग नहीं होते, शेष नौ योग होते हैं।
मिश्र-सम्यक्त्व (मिश्रदष्टि) के समय मृत्यु नहीं होती, इस कारण अपर्याप्तअवस्था में वह सम्यक्त्व नहीं पाया जाता। इसी कारण उसमें कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये अपर्याप्त-अवस्थाभावी तीन योग उसमें नहीं होते। इसके अतिरिक्त मिश्र-सम्यक्त्व के समय 1४ पूर्वो का ज्ञान संभव न होने के कारण दो आहारक योग नहीं होते। इस प्रकार कार्मण आदि उक्त पांच योगों को छोड़कर शेष दस योग मिश्र सम्यक्त्व में होते हैं। यह ध्यान रहे कि मनुष्य और तिर्यंच द्वारा वैक्रियलब्धि का प्रयोग करते समय, वे मिश्र सम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती नहीं होते, इस कारण मिश्र सम्यक्त्वावस्था में वैक्रियमिश्र योग नहीं होता, अन्य अवस्था में ही होता
है।
१. (क) कम्मुरलदुगं थावरि, ते सविउव्वि-दुग पंच इगि पवणे॥
छ असन्नि चरम वइजुय, ते विउवदुगूण चउ विगले ॥२६॥ (ख) कम्मुरल-मीसवणु मण वइ-समइय छेय-चक्खु-मणनाणे। . उरल-दुग-कम्म पढमं तिमयणवइ केवल दुगंमि ॥२८॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. २७-२८ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ९९ से १०२ तक
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