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२३० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय-संज्ञी-असंज्ञी; इन तीनों जीवस्थानों में चक्षुदर्शन होता है, एकेन्द्रिय से लेकर त्रीन्द्रिय तक के जीवों में चक्षुरिन्द्रिय न होने से चक्षुदर्शन नहीं होता।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद और पंचेन्द्रिय जाति में अन्तिम चार जीवस्थान (अपर्याप्त तथा पर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रिय एवं अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रिय जीव) हैं। अनाहारकमार्गणा में अपर्याप्त और पर्याप्त दो संज्ञी और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रिय ये छह अपर्याप्त; यों कुल २+६=८ जीवस्थान हैं। सासादन सम्यक्त्व में उक्त आठ में सूक्ष्म अपर्याप्त को छोड़कर शेष सात जीवस्थान हैं। ___ आशय यह है कि स्त्रीवेद आदि तीन मार्गणाओं में, जो अपर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रिय आदि चार जीवस्थान कहे गए हैं, उनमें अपर्याप्त का मतलब करण-अपर्याप्त है, लब्धि-अपर्याप्त नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त को द्रव्यवेद नपुंसकवेद ही होता है। असंज्ञि-पंचेन्द्रिय को यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेद, ये दो वेद माने हैं, जबकि सिद्धान्त में नपुंसकवेद माना है, फिर भी इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि यहाँ का कथन द्रव्यवेद की अपेक्षा से है, जबकि सिद्धान्त का कथन भाववेद की अपेक्षा से है। भाव-नपुंसकवेद वाले के स्त्री या पुरुष के भी चिह्न होते हैं।
अनाहारक मार्गणा में जो आठ जीवस्थान कहे हैं, उनमें से सात अपर्याप्त हैं और एक पर्याप्त। सब प्रकार के अपर्याप्त जीव अनाहारक उस समय होते हैं, जब वे विग्रह (वक्र) गति में एक, दो या तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते। पर्याप्त संज्ञी को अनाहारक इसलिए कहा है कि केवलज्ञानी द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञी कहलाते हैं
और वे केवली-समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काययोगी होने के कारण किसी प्रकार के आहार का ग्रहण नहीं करते।
सासादन सम्यक्त्व में ७ जीवस्थान माने गए, उनमें से ६ तो अपर्याप्त हैं, एक पर्याप्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य ६ प्रकार के जीवों में सासादन सम्यक्त्व इसलिए माना गया है कि जब कोई औपशमिक सम्यक्त्वी जीव उस सम्यक्त्व को छोड़ता हुआ बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय या संज्ञिपंचेन्द्रिय में जन्म लेता है, तब उसकी अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व पाया जाता है। परन्तु कोई भी जीव औपशमिक सम्यक्त्व का वमन करता हुआ सूक्ष्म एकेन्द्रिय में पैदा नहीं होता। इस दृष्टि से उसमें अपर्याप्त अवस्था में सासादन
१. (क) पज्जसन्नी-केवलदुग-संजय-मणनाण-देसमणमीसे।
___ पण चरम पज्ज वयणे, तिय-छव पज्जियर चक्खंमि॥१७॥-कर्मग्रन्थ भा. ४ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १६-१७ का विवचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ७४ व ७५
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