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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २१५ (४) सूक्ष्म-सम्पराय-संयम-जिस संयम में सम्पराय (कषाय) का उदय सूक्ष्म (अतिस्वल्प, अतिमन्द) रहता है, वह सूक्ष्मसम्पराय-संयम है। इसमें सिर्फ सूक्ष्म लोभकषाय का उदय रहता है, अन्य कषायों का नहीं। यह संयम दशम गुणस्थानवर्ती साधकों को होता है। इसके दो प्रकार होते हैं-संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक। उपशमश्रेणी से गिरने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय जो संयम होता है, वह संक्लिश्य-मानक सूक्ष्मसम्परायसंयम होता है, क्योंकि पतन होने के कारण उस समय परिणाम संक्लेशप्रधान होते जाते हैं तथा उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वालों को जो संयम दसवें गुणस्थान में होता है, वह विशुद्धयमानक सूक्ष्म-सम्पराय संयम है, क्योंकि उस समय के परिणाम विशुद्धिप्रधान ही होते हैं।
(५) यथाख्यात-संयम-जिस संयम में कषाय का उदय लेशमात्र भी नहीं है, जो संयम यथातथ्य है, वह यथाख्यात संयम है। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से निष्पन्न तथा आत्मा का जैसा शुद्ध स्वभाव है, तदवस्थारूप जो वीतरागसंयम होता है, उसे यथाख्यात संयम कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं-(१) छाद्मस्थिक और (२) अछाद्मस्थिक। छामस्थिक यथाख्यात संयम यह है, जो ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वालों को होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय का उदय तो नहीं है किन्तु कषाय की सत्ता है, जबकि बारहवें गुणस्थान में कषाय की सत्ता भी नहीं है। अछामस्थिक यथाख्यात संयम-केवलियों को होता है। सयोगीकेवली का संयम सयोगी यथाख्यात और अयोगी केवली का संयम अयोगी यथाख्यात है।
(६) देशविरति-संयम-कर्मबन्धजनक आरम्भ-समारम्भ से किसी अंश में निवृत्त होना देशविरति संयम है। इसके अधिकारी गृहस्थ हैं। ... (७) अविरति-किसी भी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना अविरति है। यह पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक पाया जाता है। १. (क) सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः क्रोधादि-कषायः, सूक्ष्मो लोभांशमात्रावशेषतया सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायः।
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १३७ (ख) इदमपि संक्लिश्यमानक-विशुद्धयमानकभेदात् द्विधा। तत्र श्रेणि-प्रच्यवमानस्य ... संक्लिश्यमानकम्, श्रेणिमारोहतो विशुद्धयमानकमिति ।"
-वही स्वो. टीका पृ. १३७ २. (क) उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि। छद्मत्थो वा जिणो वा अहक्खाओ संजओ साहू॥ -पंचसंग्रह १/३३
(शेष पृष्ठ २१६ पर)
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