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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १६१
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद : स्वरूप और कार्य ___ द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं-निवृत्ति और उपकरण। इन्द्रियों की बाह्य तथा आभ्यन्तर रचना, बनावट या आकृति को निर्वृत्ति कहते हैं और उनकी निर्वृत्ति (रचना) में उपकारी-सहायक उपकरणेन्द्रिय है। जैसे-नेत्रेन्द्रिय में कृष्णा-शुक्ल मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है और पलक, बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।
भावेन्द्रिय कहते हैं-मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मविशुद्धि को। भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम को अर्थात् चेतनाशक्ति की योग्यता विशेष को लब्धिरूप भावेन्द्रिय कहते हैं। तथा लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार आत्मा की विषय-ग्रहण में होने वाली प्रवृत्ति को उपयोगरूप भावेन्द्रिय कहते हैं। द्रव्येन्द्रियाँ शब्द, रूप (वर्ण), गन्ध, रसं
और स्पर्श नामक मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा उभयरूप भावेन्द्रियों के होने पर ही अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं।
संसारी जीवों के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पांच भेद माने जाने का कारण द्रव्येन्द्रियाँ हैं। बाहर में प्रकटरूप से जिस-जिस जीव के जितनी-जितनी इन्द्रियाँ दिखलाई देती हैं, उनके आधार से एकेन्द्रिय आदि भेद किये जाते हैं। किन्तु भावेन्द्रियाँ तो लब्धि इन्द्रिय की अपेक्षा से सभी संसारी जीवों के पांचों ही होती हैं। यद्यपि एकेन्द्रिय आदि से पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीवों के भावेन्द्रियाँ पांचों ही होती हैं, किन्तु उत्तरोत्तर व्यक्त से व्यक्ततर हैं, दूसरे शब्दों में विकसित से विकसिततर हैं। इसी प्रकार क्रमशः पंचेन्द्रिय तक समझना चाहिए। एकेन्द्रिय आदि
(पृष्ठ १६० का शेष) (ग). कतिविहा णं भंते ! इंदिया पण्णता?
गोयमा। दुविहा पण्णता, तं. दव्विंदिया य भाविंदिया य। -प्रज्ञापना १५/१ (घ) पंचेन्द्रियाणि, द्विविधानि।
-तत्त्वार्थसूत्र २/२०, १६ (ङ) विशेष विवरण के लिए देखें-प्रज्ञापना १५वा पद, तथा तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि। १. (क) देखें-प्रज्ञापना पद १५ में द्रव्येन्द्रिय के दो प्रकार-उपचय और निर्वर्तना। (ख) नित्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम।
-तत्त्वार्थ २/१७ (ग) सा द्विविधा बाह्याभ्यन्तर भेदात्।
-सर्वार्थसिद्धि १/१७ (घ) येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम्। .. -सर्वार्थसिद्धि २/१७ (ङ) मदि-आवरण-खओवसम-समुत्थ-विसुद्धी हु तज्जबोहो वा, भाविंदियं ॥
-गो. जी. १६५ । (च) लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।
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