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१६८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
चौदह प्रकार के जीवस्थानों में पर्याप्ति-अपर्याप्ति-मीमांसा जीवस्थानवर्णित पूर्वोक्त सात मुख्य भेदों के जीव पर्याप्त भी होते हैं, अपर्याप्त भी। जिनके पर्याप्ति नामकर्म का उदय हो, वे जीव पर्याप्त कहलाते हैं और अपर्याप्ति नामकर्म के उदय वाले जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। पर्याप्ति नामकर्म के उदय से आहारादि पर्याप्तियों की रचना होती है, जबकि अपर्याप्ति-नामकर्म का उदय होने पर उनकी रचना नहीं होती।
पर्याप्ति शब्द जैन कर्मविज्ञान का पारिभाषिक शब्द है। पर्याप्ति एक प्रकार की विशिष्ट शक्ति है (जिसे आधुनिक विज्ञान रासायनिक ऊर्जाशक्ति कहता है) जिसके द्वारा जीव, आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और गृहीत पुद्गलों को आहारादि रूप में परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीव में पदगलों के उपचय से बनती है। आशय यह है कि जिस प्रकार पेट के भीतरी भाग में विद्यमान पूद्गलों में एक प्रकार की शक्ति होती है, जिससे खाया हुआ आहार रस, रक्त आदि भिन्न-भिन्न रूप में परिवर्तित होता जाता है। इसी प्रकार मृत्यु के बाद संसारी जीव दूसरा जन्म लेने के लिये योनि (जन्म) स्थान में प्रवेश करते ही अपने शरीर के योग्य आहारादि पुद्गलवर्मणा को ग्रहण करता है, इसी को आहार कहते हैं। फिर उस जीव के द्वारा गृहीत पुद्गलों में ऐसी शक्ति बन जाती है, जो आहारादि पुद्गलों को खलभाग-रसभाग आदि रूप में (परिणत कर) बदल देती है। जीव की इसी शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति-जनक पुद्गलों में से कुछ तो ऐसे होते हैं, जो जन्मस्थान में आये हुए जीव के द्वारा प्रथम समय में ही ग्रहण किये हुए
(पृष्ठ,१६७ का शेष) (घ) दिगम्बर ग्रन्थों (गो. जी. ७९ आदि) में गर्भजतिर्यञ्चों को संज्ञी न मान कर
संजी-असंज्ञी दोनों तथा सम्मर्छिम तिर्यञ्च को असंज्ञीमात्र न मानकर संजी
असंज्ञी उभयरूप माना है। (ङ) दिगम्बर ग्रन्थों में संज्ञी-असंज्ञी का यह विचार दृष्टिगोचर नहीं होता , जबकि
श्वेताम्बर ग्रन्थों में ओघसंज्ञा के सिवाय शेष तीन संज्ञाओं का विचार किया गया है।
-कर्मग्रन्थ ४, परिशिष्ट 'ग', पृ. ३९ १. जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो ताव। -गो. जी. १२१ २. (क) आहार-सरीरिदिय-णिस्सासुस्सास-भास-मणसाणं।
परिणइ वावारेसुय जाओ छच्चेव सत्तीओ॥ तस्सेव कारणाणं पुग्गल-खंधाण जाह णिसत्ती। सा पज्जत्ती भण्णदि ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा १३४,१३५ (ख आहार-शरीर""निष्पत्तिः पर्याप्तिः। -धवला १/१/१/७०
शरीरपर्याप्त्या निष्पन्नः पर्यास इति भण्यते। -धवला १/१/१/७६
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