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१६६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, (४) परिग्रहसंज्ञा, (५) क्रोधसंज्ञा, (६) मानसंज्ञा, मायासंज्ञा (८) लोभसंज्ञा, (९) ओघसंज्ञा और (१०) लोकसंज्ञा ।
आचारांगनिर्युक्ति में निर्युक्ति में अनुभवसंज्ञा के ये दश तथा इनके अतिरिक्त ६ इस प्रकार है- (११) मोहसंज्ञा, (१२) धर्मसंज्ञा, (१३) सुख-संज्ञा, (१४) दुःखसंज्ञा, (१५) जुगुप्सासंज्ञा और (१६) शोकसंज्ञा । १
चैतन्य के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से चार कोटि की संज्ञाएँ
ये अनुभव संज्ञाएँ सभी जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती हैं, इसलिए संज्ञित्व - असंज्ञित्व - व्यवहार की नियामक नहीं है। आगमों में संज्ञी - असंज्ञी का जो भेद है, वह अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में चैत्तन्य का विकास उत्तरोत्तर अधिकाधिक है। ये संज्ञाएँ चैतन्य - विकास की न्यूनाधिकता के आधार पर निर्दिष्ट हैं। चैतन्यविकास के तारतम्य को समझाने हेतु शास्त्र में इसके स्थूलदृष्टि से चार विभाग किये गए हैं - (१) ओघसंज्ञा, (२) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा, (३) दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा, और (४) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा ।
(१) प्रथम विभाग में एकेन्द्रिय जीव आते हैं, जिनमें ज्ञान का अत्यल्प विकास होता है। इस विकास वाले जीव ओघसंज्ञा वाले होते है, जिनकी चेतना सुषुप्त और मूर्च्छितवत् चेष्टारहित अव्यक्ततर होती है। इसी अव्यक्ततर चैतन्य को ही ओघसंज्ञा कहते हैं। २
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(२) दूसरे विभाग में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय जीव आते हैं, जिनमें चेतना के विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है, जिससे उन्हें सुदीर्घ भूतकाल का तो नहीं, किन्तु आसन्न यत्किंचित् भूतकाल का स्मरण हो जाता है। जिससे उनकी अपने इष्ट विषयों से प्रवृत्ति और अनिष्ट विषयों से निवृत्ति भी होती है। इस प्रकार प्रवृत्ति - निवृत्तिकारी ज्ञान (चैतन्यविकास) को
१. (क) स्थानांग, स्थान ४ (ख) सण्णा चउव्विहा - आहार-भय- मेहुण परिग्गह सणावेति ।
धवला २/१, १/४, १३/१
(ग) आचारांग - निर्युक्ति गा. ३८, ३९
(घ) भगवती सूत्र शतक ७, उद्देशक ८
(ङ) प्रज्ञापना पद ८
२. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ परिशिष्ट 'ग' संज्ञा शब्द पर, (पं. सुखलाल जी) पृ. ३८
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन ( मरुधरकेसरी), पृ. ४६-४७
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