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१८२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में आठ उपयोग ही क्यों? संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में मनःपर्यायज्ञान, चक्षुर्दर्शन, केवलज्ञान और केवलदर्शन इन चार उपयोगों को छोड़कर शेष आठ उपयोग होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त को अपर्याप्त दशा में मनःपर्याय-ज्ञानादि चार उपयोग न मानने का कारण यह है कि मन:पर्यायज्ञान संयमी जीवों को होता है और अपर्याप्त दशा में संयम संभव नहीं है। चक्षुर्दर्शन भी चक्षुरिन्द्रिय वालों को होता है और वह चक्षुरिन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा रखता है किन्तु अपर्याप्त अवस्था में चक्षुरिन्द्रिय का व्यापार नहीं होता है। अतः उनमें चक्षुर्दर्शन भी सम्भव नहीं है। केवलज्ञान-केवलदर्शन भी उनमें सम्भव नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग कर्मक्षयजन्य है, किन्तु अपर्याप्त दशा में कर्मक्षय होना सम्भव नहीं है। इसीलिए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्तदशा में पूर्वोक्त ८ उपयोग ही माने जाते हैं। यहां अपर्याप्त का अर्थ-लब्धिअपर्याप्त नहीं, करण-अपर्याप्त समझना चाहिए। लब्धि अपर्याप्त में तो मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान और अचक्षुर्दर्शन, ये तीन उपयोग ही समझने चाहिए।
जीवस्थानों में पन्द्रह योगों की प्ररूपणा , योग का स्वरूप और उसके भेद-योग की परिभाषा है-वीर्यशक्ति के जिस परिस्पन्दन से-आत्मप्रदेशों की हलचल से-आत्मा की जो गमनागमनादि क्रियाएँ होती हैं, तथा जो परिस्पन्दन तन-मन-वचन की वर्गणाओं के पुद्गलों की सहायता से होता है, वह योग है। दूसरे शब्दों में-पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन-वचन-काययुक्त जीवों की जो-कर्म-ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है, उसे योग कहते हैं। ___ योग के मुख्य तीन भेद हैं-(१) मनोयोग, (२) वचनयोग और (३) काययोग। इन तीनों मुख्य योगों के १५ प्रकार हैं-मनोयोग के ४ भेद-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिश्र (सम्यमृषा) मनोयोग तथा असत्यामृषा मनोयोग। वचनयोग
१. (क) कर्मग्रन्थ भाग ४ गा.६ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से, पृ.७९-८० (ख) पंचसंग्रह में चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन तीनों को
अपर्याप्त दशा में इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् चक्षुर्दर्शन होना माना है। देखिये, उसकी मलयगिरि टीकाअपर्याप्तकाश्चेह लब्ध्यपर्याप्तका वेदितव्याः, अन्यथा करणाऽपर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रिया दिव्विन्द्रिय-पर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते, मूलटीकायामाचार्येणाऽभ्युमनुज्ञानात्। -पंचसंग्रह १/८ की टीका
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