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जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १८५
कार्मग्रन्थिकों और सैद्धान्तिकों में मतविभिन्नता का अभिप्राय
कर्मग्रन्थ में ही पूर्वोक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीवों के योग के सम्बन्ध में मतभेद प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि मतान्तर से पूर्वोक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव जब शरीर-पर्याप्ति पूर्ण कर लेते हैं, तब उनमें औदारिक काययोग तथा वैक्रिय काययोग ही होता है, औदारिकमिश्र काययोग तथा वैक्रियमिश्र काययोग नहीं। इस मतान्तर का आशय यह है कि शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने से शरीर पूर्ण बन जाता है। इस स्थिति में दूसरी पर्याप्तियाँ पूर्ण न बनने पर भी जब शरीर पर्याप्ति पूर्ण बन जाती है, तभी से मिश्रयोग नहीं रहता, अपितु औदारिक शरीर वालों के औदारिक काययोग और वैक्रियशरीर वालों के वैक्रियकाययोग ही होता है । सैद्धान्तिकों की मान्यता है कि शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर ही औदारिक काययोग तथा वैक्रिय काययोग ही मानना चाहिए, दूसरी पर्याप्तियाँ पूर्ण हों चाहे न हों। जबकि कार्मग्रन्थिकों का मानना है कि समस्त पर्याप्तियों के पूर्ण होने से बने हुए को ही औदारिक काययोग तथा वैक्रियकाययोग माना जाता है, क्योंकि जब तक इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति पूर्ण न हों, तब तक शरीर अपूर्ण है, और कार्मणशरीर का व्यापार ( प्रवृत्ति) भी चालू रहता है। इसलिए औदारिकमिश्र काययोग तथा वैक्रियमिश्र काययोग मानना ही युक्तिसंगत है ।
पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों में पन्द्रह ही योग : क्यों और कैसे ?
यह हुई सात अपर्याप्त जीवस्थानों में योग की प्ररूपणा । अब सात पर्याप्तं जीवस्थानों में योग की प्ररूपणा इस प्रकार है- पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में सभी योग पाये जाते हैं, क्योंकि उनमें आहार, शरीर आदि छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं।
प्रश्न होता है- पहले कहा गया था कि कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र ये तीनों योग अपर्याप्त अवस्थाभावी है, फिर पर्याप्त अवस्था में भी उन्हें मानने का कारण क्या है ?
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ की 'एसुं तणुपज्जेसुं उदल - मन्त्रे' इस चतुर्थ गाथा में मतान्तर व्यक्त किया गया है।
(ख) औदारिककाययोगस्तिर्यग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तेरूर्ध्वं तदाऽरतस्तु मिश्रः ।
- आचारांग श्रु. १अ. २ उ. १ का टीका (ग) यद्यपि तेषां शरीर - पर्याप्तिः समजनिष्ट, तथापि इन्द्रिय- श्वासोच्छ्वासादीनामद्याप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्याऽसम्पूर्णत्वाद्, अतएव कार्मणस्थाप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वात् औदारिकमिश्रमेव तेषां युक्त्या घटमानकंमिति ।
- कर्मग्रन्थ भा. ४ स्वोपज्ञ टीका पृ. १२१
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