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जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १९५ अन्तिम आवलिका में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों की उदीरणा रुक जाती है।
चौदहवाँ आयोगीकेवली गुणस्थान अनुदीरक है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में नाम और गोत्र का उदय रहने पर भी योग न होने के कारण उदीरणा नहीं होती। इस सम्बन्ध में कर्मग्रन्थ में एक प्रश्न उठाया गया है कि सयोगि-केवली गुणस्थान की तरह अयोगिकेवली गुणस्थान में भी भवोपग्राही चार कर्म-प्रकृतियों का उदय होने पर भी अनुदीरक कैसे माना गया है? इसका समाधान यह है कि इस गुणस्थान में भवोपग्राही चार प्रकृतियों का उदय होने पर भी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा के कारणभूत योग का अभाव होने से अयोगिकेवली गुणस्थान को अनुदीरक कहा गया
ध्यान रहे कि पूर्वोक्त सभी बन्धस्थान, सत्तास्थान, उदयस्थान और उदीरणास्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के हैं, क्योंकि संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव ही चौदह गुणस्थानों के अधिकारी हैं। किस-किस गुणस्तान में कौन-कौन-सा बन्धस्थान, सत्तास्थान, उदयस्थान और उदीरणास्थान है? इसका विशेष विवरण आगे गुणस्थानप्रकरण में दिया जाएगा।
अष्ट विषयों की प्ररूपणा का उद्देश्य .. इस प्रकार चौदह प्रकार के जीवस्थानों में गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, सत्ता, उदय और उदीरणा, इन आठ विषयों की सांगोपांग प्ररूपणा की गई है। कर्मविज्ञान का इन आठ विषयों की प्ररूपणा के पीछे उद्देश्य यही है कि आत्मार्थी जिज्ञासु एवं मुमुक्षु संसारी जीवों के साथ विभिन्न पर्यायों में लगे हुए कर्मबन्ध और उसके पश्चात उसकी सत्ता, उदय और उदीरणा के स्थानों को जान कर उत्तरोत्तर इनका निरोध और क्षय करके मुक्ति की ओर प्रयाण कर सके।
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ८ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ९३,९४ (ख) तथाऽप्रमत्तगुणस्थानकात् प्रभृति यावत् सूक्ष्म-सम्परायगुणस्थानकस्या
ऽवलिकाशेषो न भवति तावद् वेदनीयाऽयुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतिनामुदीरणा, तदनीमतिविशुद्धत्वेन वेदनीयाऽयुरुदीरणायोग्याऽध्यवसायस्थानाभावात्।
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका, पृ. १२६ २. अयोगिकेवली-गुणस्थानके तु वर्तमानो जीवः सर्वथाऽनुदीरक एव। ननु तदानीमप्येष
सयेगिकेवली-गुणस्थानक इव भवोपग्राहि कर्म-चतुष्टयोदयवान् वर्तते, ततः कथं तदापि तयोर्नामगोत्रयोरुदीरको न भवति? नैष दोषः, उदये सत्यपि योगसव्यपेक्षत्वाद् उदीरणायाः, तदानीं च तस्य योगाऽसम्भवादिति। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञ टीका, पृ. १२७
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