________________
जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १९३ की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होने से इस सत्तास्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समझनी चाहिए। ___ चार कर्मों का सत्तास्थान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है, क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चार अघाति कर्मों की सत्ता शेष रहती है। इन दो गुणस्थानों की मिलाकर जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष सात मास कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। अतः चार कर्मों के सत्तास्थान की भी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही समझनी चाहिए।
कर्मों का उदयस्थान कर्मों के उदयस्थान भी तीन हैं, जो आठ, सात और चार कर्मों के हैं। आठ कर्मों का उद्यस्थान पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है। इसकी स्थिति अभव्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और. भव्य की अपेक्षा से अनादि-सान्त है। किन्तु उपशमश्रेणि से गिरे हुए भव्य की अपेक्षा सादि-सान्त है। उपशमश्रेणि से गिरने के बाद अन्तमूहूर्त में फिर से श्रेणि की जा सकती है। यदि अन्तर्मुहूर्त में श्रेणि न की जा सकी तो अन्त में कुछ कम अर्धपुद्गल-परावर्तन काल के बाद तो अवश्य की जाती है। इसलिए आठ कर्मों के उदय स्थान की सादि-सान्त स्थिति जघन्य । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट देशोन (कुछ कम) अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल प्रमाण समझनी चाहिए।
सात कर्मों का उदयस्थान ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पाया जाता है। इस उदयस्थान की स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की मानी जाती है। एक समयमात्र की जघन्य स्थिति उस समय होती है, जब जीव ग्यारहवें गुणस्थाम में एक समयमात्र रह कर मरता है, और अनुत्तरविमान में पैदा होता है। तब पैदा होते ही वह आठ कर्मों के उदय का अनुभव करता है। इस अपेक्षा से सात कमों के उदयस्थान की जघन्य स्थिति समयमात्र की कही गई है। जो जीव बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, वह अधिक से अधिक उस गुणस्थान की स्थितिअन्तर्मुहूर्त तक-सातकर्मों के उदयस्थान का अनुभव करता है। इसके बाद तो तेरहवें गुणस्थान को प्राप्तकर सिर्फ चार (अघाती) कर्मों के उदय का अनुभव करता है। इस अपेक्षा से सात कर्मों के उदयस्थान की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण कही गई है।
चार कर्मों का उदय-स्थान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है क्योंकि इन. दो गुणस्थानों में चार अघाति कर्मों के उदय के सिवाय अन्य किसी कर्म
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ८ का विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ३० .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org