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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २०७
(२) इन्द्रियमार्गणा के भेद और स्वरूप इन्द्रियमार्गणा के ५ भेद हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। एकेन्द्रिय-जिन जीवों के एकेन्द्रिय जातिनाम कर्म के उदय से एक ही इन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय है, उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं। द्वीन्द्रिय-द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जिन जीवों के स्पर्शन और रसन (जीभ) ये दो ही इन्द्रियाँ हैं, उन्हें द्वीन्द्रिय कहते हैं। त्रीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय नामकर्म के उदय से जिन जीवों के स्पर्शन, रसन और घ्राण (नाक) ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें त्रीन्द्रिय कहते हैं। चतुरिन्द्रियचतुरिन्द्रिय नामकर्म के उदय से जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु, ये चार इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें चतुरिन्द्रिय कहते हैं। पंचेन्द्रिय-पंचेन्द्रिय नामकर्म के उदय से स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान), ये पांचों इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें पंचेन्द्रिय कहते हैं।
- (३) काय-मार्गणा के भेद और स्वरूप कायमार्गणा के छह भेद होते हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। पृथ्वीकाय-पृथ्वी से बनने वाला पार्थिव शरीर। अप्काय-जल-परमाणुओं से बनने वाला जलीय शरीर। अग्नि (तेजस्) कायअग्नि या तेज के परमाणुओं से बनने वाला शरीर। वायुकाय-वायु (हवा) से बनने वाला वायवीय शरीर वायुकाय है और वनस्पतिकाय-जिन जीवों का शरीर वनस्पतिमय हो, उन्हें वनस्पतिकाय कहते हैं। पृथ्वी आदि का शरीर, शरीर नामकर्म के उदय से स्वयोग्य रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त पृथ्वी, जल आदि में ही बनता है। ये पांचों काय स्थावर नामकर्म वाले होते हैं।
त्रसकाय-जो शरीर दूसरे किसी से प्रेरित किये बिना स्वतः प्रेरणा से चल-फिर सकता है, उस जीव को त्रसकाय कहते हैं। · द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के त्रसनामकर्म का उदय होता है और वे अपने-अपने प्राप्त शरीर से स्वयं चल-फिर सकते हैं। हित में प्रवृत्ति और अहित से. निवृत्तिरूप क्रिया भी कर सकते हैं।२ १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. ५२
(ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. १०७,१०८ २. (क) वही, विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. १०८ (ख) सुर-नर-तिरि-निरयगइ इग-बिय-तिय-पणिंदि छक्काया। . भू-जल-जलणानिल-वण-तसा य मण-वयण-तणु-जोगा॥
-चतुर्थ कर्मनन्थ गा. १०
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