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जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १८९
बन्ध करते हैं। इसका कारण यह है कि जब आयुकर्म का बन्ध नहीं होता, तब सात कर्म प्रकृतियों का और आयुकर्म का बन्ध होने पर आठ प्रकृतियों का बन्ध होता है । यह सिद्धान्त है कि आयुकर्म का बन्ध एक भव में एक ही बार, वह भी जघन्य- या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक ही होता है। वह भी नियमानुसार वर्तमान आयु के तीसरे, नौवें, सत्ताइसवें आदि भाग शेष रहने पर या इन स्थितियों में बन्ध न हो तो वर्तमान आयु के अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण शेष रहने पर परभवायुबन्ध अवश्य होता है।
चौदह जीवस्थानों में उदीरणा, सत्ता और उदय की प्ररूपणा
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में प्रत्येक समय में " जैसे सात या आठ कर्मों का बन्ध बताया गया है, वैसे ही प्रत्येक समय में सात या आठ कर्मों की उदीरणा हुआ करती है। आयुकर्म की उदीरणा न होने के समय सात कर्मों की उदीरणा और आयुकर्म की उदीरणा जीवन की अन्तिम आवलिका में पायी जाती है। कारण यह है कि उस समय आवलिका मात्र स्थिति शेष रहने के कारण उदयमान आयु की और अधिक स्थिति होने पर भी उदयमान न होने के कारण आगामी भव की आयु उदीरणा नहीं होती। शेष समय में आठ कर्मों की उदीरणा हो सकती है। उदीरणा का नियम यह है कि जो कर्म उदय प्राप्त है, उसी की उदीरणा होती हैं, दूसरे की नहीं, और उदयप्राप्त कर्म भी आवलिकामात्र शेष रह जाता है, से उसकी उदीरणा रुक जाती है।
तब
उक्त तेरह प्रकार के जीव-स्थानों में जो अपर्याप्त जीवस्थान हैं, उनमें अपर्याप्त का अर्थ लब्धि- अपर्याप्त समझना चाहिए, करण - अपर्याप्त नहीं; क्योंकि लब्धिअपर्याप्त जीवों के ही सात या आठ कर्मों की उदीरणा सम्भव है। ऐसे जीव लब्धिअपर्याप्त - दशा में ही मर जाते हैं, इसलिए उनमें आवलिकामात्र आयु शेष रहने पर
१.. . (क) 'सत्तट्ठ बंधुदीरण संतुदया अट्ठतेरससु । ' - कर्मग्रथ भा. ४गा. ७ (ख) कर्मग्रथ भा. ४ गा. ७ विवेचन ( मरुधरकेसरीज़ी), पृ. ८५
(ग) यह नियम सोपक्रम (अपवर्त्य - घट सकने वाली) आयु वाले जीवों के लागू पड़ता है, निरुपक्रम आयु वालों के नहीं। यदि वे देव, नारक या असंख्यातवर्षीय मनुष्य या तिर्यंच हों तो छह महीने आयु बाकी रहने पर ही परभव की आयु बांधते हैं । यदि एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय या सामान्य मनुष्य या तिर्यंच हों तो वर्तमान भव के तीसरे भाग के शेष रहने पर ही आयु बांधते हैं। -पंचम कर्मग्रन्थ गा. ३४, बृहत्संग्रहणी ३२१-३२३. २. एक मुहूर्त के १,६७,७७, २१६वें भाग को आवलिका कहते हैं। दो घड़ी = ४८ मिनट को एक मुहूर्त्त कहते हैं। -सं.
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