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१६४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ऐसा परिणाम उत्पन्न कर देता है, जिससे वे अनन्त शरीर एकत्रित हो जाएँ, तो भी दृष्टिगोचर नहीं हो पाते हैं, वे समग्र लोक में व्याप्त हैं। ज्ञान के द्वारा जानने योग्य होने पर भी ये वाचिक व्यवहार के अयोग्य हैं। किसी अन्य से उनका घात-प्रतिघात नहीं होता, वे अपने प्राप्त शरीर में विद्यमान रहते हैं। किन्तु बादर एकेन्द्रिय जीवों में बादर नामकर्म का उदय होने से वे जीव लोक के प्रतिनियत देश में रहते हैं, सर्वत्र नहीं। यद्यपि बादर.जीवों का, प्रत्येक का पृथक्-पृथक् शरीर इन चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु उनके शारीरिक परिणमन में बादर रुप से परिणमित होने-अभिव्यक्त होने की विशेष क्षमता होने से वे समुदायरूप में दिखलाई दे सकते हैं. इसलिए उन्हें ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ व्यवहारयोग्य कहा गया है। ..
षट्कायिक या पंचेन्द्रिय जीवों की पहचान सूक्ष्म और बादर सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के सिर्फ पहली स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा अथवा शरीर) होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति काय से ये पांचों एकेन्द्रिय जीव पहचाने जाते हैं।
द्वीन्द्रिय जीव वे हैं, जिनके स्पर्शन (त्वचा-शरीर) और रसन, (जीभ) ये दो द्रव्येन्द्रियाँ हों। जैसे-लट, गिंडौला, अलसिया, शंख, कृमि आदि जीव।
त्रीन्द्रिय जीव वे हैं, जिनके स्पर्शन, रसन और घ्राण, ये तीन इन्द्रियाँ हों, जैसे-जूं, लीख, खटमल, चीचड़, गजाई, खजूरिया, उद्दई आदि। .
चतुरिन्द्रिय जीव वे हैं, जिनके स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु (आँख), ये चार द्रव्येन्द्रियाँ हों। जैसे-भ्रमर, टिड्डी, मक्खी, मच्छर, बिच्छू आदि। .. पंचेन्द्रिय जीव वे हैं, जिनके स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान), ये पांचों इन्द्रियाँ हों। जैसे-तिर्यश्च (गाय, घोड़ा आदि) मनुष्य, देव और नारकार
संसार में नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में विद्यमान समस्त जीवों में से तिर्यंचगति के जीवों के सिवाय नारक, मनुष्य और देव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। उनमें पूर्वोक्त पांचों इन्द्रियाँ होती हैं। किन्तु तिर्यंचगति के जीवों में कितने ही के एक, कितने ही के दो, तीन, चार अथवा पांच इन्द्रियाँ होती हैं। ..
१. कर्मग्रन्थ भाग-४ विवेचन गा. २ (मरुधरकेसरी), पृ. ४४, ४५ २. (क) वही, गाः २ के विवेचन पर से (मरुधर केसरी), पृ. ४५ ___(ख) कर्मग्रन्थ भा.४ गा. २ का विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. १०
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