________________
चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १६३ वाले एकेन्द्रिय जीव ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ चर्मनेत्रों से भी दिखाई देते हैं। जैसे- पृथ्वी का शरीर पृथ्वीरूप, जल का शरीर जलरूप आदि । एकेन्द्रिय जीवों को सूक्ष्म और बादर शरीर की प्राप्ति क्रमशः सूक्ष्म नामकर्म और बादर नामकर्म के उदय से होती है। सूक्ष्म नामकर्म और बादर नामकर्म को इनके साथ-साथ प्राप्त होने वाली अन्य प्रकृतियाँ क्रमशः स्थावरदशक और त्रस - दशक कर्म - प्रकृतियों में परिगणित की गई हैं। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से एकेन्द्रियों को प्राप्त होने वला सूक्ष्मशरीर परस्पर व्याघात से रहित है। वह न किसी के रोके रुकता है और न अन्य किसी को रोकता है। यह शरीर अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य होता है । यह तो अनुभव - -सिद्ध है कि जैसे सूक्ष्म होने से अग्नि लोहे में प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार सूक्ष्म नामकर्म से प्राप्त सूक्ष्मशरीर भी किसी भी प्रदेश में प्रविष्ट हो सकता है । १
सूक्ष्मशरीर की विशेषता
तैजस कार्मण शरीर तो सूक्ष्मतम हैं ही। उनका सभी संसारी जीवों के साथ अनादि सम्बन्ध है और वे भी आघात - प्रतिघात से रहित हैं । संसारी जीव के मरणकाल में आत्मा इन दोनों शरीरों के साथ ठोस वज्रमय या लोहमय बंद कमरा हो तो भी उसमें से बिना किसी प्रकार का छेदन या दरार किये, निकल जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय वाले स्थावर एकेन्द्रिय जीवों का सूक्ष्म शरीर नेत्र से अगोचर होने के अतिरिक्त मूर्त द्रव्यों के आघात-प्रतिघात एवं अनुग्रहादि अवस्थाओं से रहित है।
बादरकाय का स्वरूप और विश्लेषण
जिस नामकर्म के उदय से जीव को बादरकाय की प्राप्ति होती है, उसे बादर नामकर्म कहते हैं। जो शरीर नेत्रों से दिखाई दे, नेत्रों से देखा जा सके और अन्य को बाधा पहुँचाए, उस शरीर का नाम बादर शरीर है। बादर का इतना ही अर्थ नहीं है, अपितु जो उन पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों के शरीर - समूह में एक प्रकार के बादर-परिणाम को उत्पन्न करता है, उसे भी बादर पृथ्वी आदि जीव कहते हैं।
एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर भेद मानने के पीछे कारण
एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद मानने के पीछे कारण यह है कि पूर्वोक्त लक्षण के अतिरिक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ऐसे हैं कि उनमें सूक्ष्म नामकर्म
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन ( मरुधरकेसरी) पृ. ४२ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (पं. सुखलालजी)
२. कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन ( मरुधरकेसरी) पृ. ४२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org