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| जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा
आत्मा अपने आप में स्वभाव से शुद्ध एवं स्फटिक के समान निर्मल है। वह अनन्त ज्ञान, दर्शन, आत्मिक सुख एवं आत्मशक्ति से प्रकाशमान है। परन्तु कर्म-बन्ध से बार-बार श्लिष्ट होने के कारण प्रवाहरूप से अनादिकाल से वह अपने इन आत्मगुणों को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है। समस्त संसारी जीवों के साथ कर्मबन्ध की अटूट श्रृंखला का चक्र चल रहा है। कर्मबन्ध के कारण ही संसारी जीव पृथक्पृथक् शरीरों, योनियों, गतियों, अवस्थाओं, मूढ़ताओं आदि में बंटा हुआ है। उसे मालूम ही नहीं पड़ता कि मैं किस कारण से इन विभिन्न अवस्थाओं और रूपों से घिरा हुआ हूँ? अतः महामनीषी सर्वज्ञ आप्त कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने संसारस्थ समस्त जीवों को चौदह भागों में वर्गीकृत करके कर्मबन्ध की अपेक्षा से अमुक-अमुक जीवों में पाये जाने वाले आठ विषयों का निरूपण किया है। ऐसा करके उन महानुभावों ने संसारी जीवों की आँखें खोल दी हैं-अपने में स्वाभाविक और वैभाविक दशा प्राप्त होने के कारणों और विकारी अवस्थाओं से छुटकारा पाने के उपायों को बता कर।
चतुर्दश जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा कर्मग्रन्थ में पूर्वोक्त चौदह जीवस्थानों में निम्न आठ विषयों को लेकर प्ररूपणा की गयी है कि किन-किन जीवों में वे किस-किस रूप में पाये जाते हैं। वे आठ विषय ये हैं-(१) गुणस्थान, (२) उपयोग, (३) योग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता। १. (क) नामेय जिण वत्तव्वा, चउदस-जिअ-ठाणएसु गुणठाणा। जोगुवओगो लेसा, बंधुदओदीरणा सत्ता ॥१॥ -प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ पर जीवविजयकृत टब्बा
(शेष पृष्ठ १७३ पर)
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