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जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १७७ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त अंसज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त विकलेन्द्रियत्रिक, अपर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रिय और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन सात जीवस्थानों के सिवाय शेष निम्रोक्त सात जीवस्थानों में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है:-(१) अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (३) बादर एकेन्द्रिय, (४) पर्याप्त अंसज्ञी पंचेन्द्रिय, (५) पर्याप्त द्वीन्द्रिय, (६) पर्याप्त त्रीन्द्रिय, (७) पर्याप्त चतुरिन्द्रिय।
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त शेष सात जीवस्थानों में परिणाम ऐसे संक्लिष्ट होते हैं, जिससे मिथ्यात्व के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान ही सम्भव नहीं है।
(२) जीवस्थानों में उपयोग की प्ररूपणा उपयोग बारह हैं-५ ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान), ३ अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान) और ४ दर्शन (चक्षुदर्शन, अंचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन)। इनमें से पांच ज्ञान और तीन अज्ञान ये आठ साकार (विशेषज्ञानरूप) हैं, और चार दर्शन अनाकार (सामान्य ज्ञानरूप) हैं।
उपयोग को सामान्य-विशेष रूप मानने का कारण इस अपेक्षा से उपयोग के दो भेद भी होते हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग अथवा साकारोपयोग और निराकारोपयोग। ज्ञान और दर्शन उपयोगों को विशेषसामान्यरूप मानने का कारण यह है कि वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। जिनमें से उत्पाद या साकार निराकाररूप व्ययरूप अंश पर्यायात्मक एवं त्रिकाल अस्तित्व (ध्रुवत्व) रूप अंश द्रव्यात्मक (ध्रौव्यात्मक) है। पर्यायें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से विशेषरूप कहलाती हैं और तब उनका कुछ न कुछ आकार अवश्य होता है। पर्यायें परिवर्तित होते रहने पर भी वस्तु के अस्तित्व या सदात्मकत्व में किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं आती। अतः इसमें न्यूनाधिकता न होने से वस्तु को निराकार सामान्यात्मक माना जाता है। इसीलिए ज्ञानोपयोग से वस्तुगति विशेष धर्मों का,
(पृष्ठ १७६ का शेष) (ग) अथ कथं . संज्ञिनः सयोग्योगिरूप-गुणस्थानद्वयसम्भवः, तद्भावे
तस्याऽमनस्कतया संज्ञित्वाऽयोग? न, तदानीमपि हि तस्य द्रव्यमन:सम्बन्धोऽस्तीति समनस्काश्चाविशेषेण संज्ञिनो व्यवह्रियन्ते ततो न तस्य भगवतः संज्ञिता-व्याघातः।
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञ टीका, पृ. १२० . १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन गा.३ (पं. सुखलालजी) पृ. १३, १४
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ३ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ५७
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