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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १५५
जीव का लक्षण : विभिन्न दृष्टियों से द्रव्यसंग्रह के अनुसार जीव का लक्षण है-जो शुद्ध निश्चयनय से निश्चय प्राणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्मवीर्य) से जीता है, तथापि अशुद्ध निश्चयनय से द्रव्यप्राणों (पांच इन्द्रिय, मन-वचन-काय, उच्छ्वास, आयु इन १० प्राणों) से तथा भावप्राणों जीता है, वह जीव है। गोम्मटसार के अनुसार-(अशुद्ध निश्चयनय से) कर्मोपाधिसापेक्ष ज्ञानदर्शनोपयोगरूप चैतन्यप्राणों (जीव के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व, इन छह गुणों) से जीते हैं, वे जीव हैं।९ . .. प्रवचनसार के अनुसार-'जो (निश्चयनय से) चार प्राणों से, (व्यवहारनय से दश प्राणों से) जीता है, जीयेगा और पहले भी जीता था, वह जीव है।' अथवा राजवार्तिक में जीव (संसारी जीव) का लक्षण किया है- जो दश प्राणों में से अपनी पर्याय के अनुसार यथायोग्य गृहीत प्राणों के द्वारा जीता है, जीता था और जीयेगा, इस त्रैकालिक जीवन गुण वाले को जीव कहते हैं।
पंचास्तिकाय के अनुसार-'आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोग विशेष वाला है।' भावपाहुड़ में इसी का परिष्कृत लक्षण दिया गया है-जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्त है, शरीरप्रमाण है, अनादिनिधन है, दर्शन-ज्ञान-उपयोगमय है, ऐसा श्री जिनेश्वरदेवों द्वारा निर्दिष्ट है। (शुद्ध-कर्मादि विकाररहित) जीव का शुद्ध निश्चयनय से समयसार में लक्षण दिया गया है-“हे भव्य! तू जीव को रसरहित, गन्धरहित, अव्यक्त अर्थात्-इन्द्रियों से अगोचर, चेतनागुणरूप, शब्दरहित, किसी भी चिन्ह या अनुमानज्ञान से ग्रहण न होने वाला, और आकाररहित जान।" आचारांग सूत्र के अनुसार-वह (शुद्ध आत्मा) न शब्द रूप है, न गन्धरूप है, न रसरूप है, न स्पर्शरूप है। वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त (गोल) है, न त्रिकोण है, न चौरस है, न मंडलाकार है। वह न कृष्ण है, न नीलादि है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक
१. (क) शुद्धनिश्चयनयेन शुद्ध चैतन्यलक्षण-निश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति तथाप्यशुद्धनयेनद्रव्य-भाव-प्राणैर्जीवति जीवः।
-द्रव्यसंग्रह टीका २/८/५ (ख) कर्मोपाधि-सापेक्ष-ज्ञानदर्शनोपयोग-चैतन्यप्राणेन जीवन्तीति जीवा॥
___ -गोम्मटसार जीवकाण्ड (जी. प्र.)२/२१/८ २. (क) पाणेहिं चदुहिं जीवदि, जीविस्सदि, जो हि जीविदे, पुव्वं।
सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता॥ -प्रवचनसार १४७ गा. (ख) दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवात् 'जीवति' . अजीवीत 'जीविष्यति' इति वा जीवः। -राजवार्तिक १/४/७/२५
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