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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण. १५३
लेकर सभी संसारी जीवों के होता है, जबकि औपशमिक भाव तो कतिपय जीवों को ही होता है, ऐसी स्थिति में औदयिक भाव को छोड़कर सर्वप्रथम औपशमिक भाव को क्यों ग्रहण किया गया? इसका समाधान यह है कि औदयिक और पारिणामिक भाव तो जीव के सिवाय अजीव द्रव्य में भी पाये जाते हैं तथा क्षायिक भाव औपशमिक भावपूर्वक ही होता है। कोई भी जीव उपशम भाव को प्राप्त किये बिना क्षायिक भाव को प्राप्त नहीं करता और क्षायोपशमिक भाव भी औपशमिक भाव से भिन्न नहीं है। इसलिए जीव के असाधारण स्वरूप को बताने और अन्य से व्यावृत्ति करने हेतु सर्वप्रथम औपशमिक भाव को ग्रहण किया गया है। राजवार्तिक में बताया गया है कि पर्यायार्थिकनय से जीव औपशमिकादि भावरूप है और निश्चयनय से जीव अपने अनादि पारिणामिक भावों से ही स्वरूपलाभ करता है।
(२) जीव किस का प्रभु है ? : समाधान यह है कि जीव ( निश्चयनय से ) अपने स्वरूप का प्रभु = स्वामी है। संसार में, लौकिक व्यवहार में जो स्वामिसेवकभाव दृष्टिगोचर होता है, वह कर्मोपाधिक है - कर्मजन्य है, वास्तविक नहीं और न ही परमात्मा और संसारी जीवात्मा में कोई स्वामि-सेवक भाव है । भजनों में भक्ति भाववश जो. 'हूँ सेवक तूं धणी " कहा जाता है, वह भी औपचारिक हैं। जैसे - कर्मों से मुक्त हुए जीवों (आत्माओं) में कोई स्वामि-सेवक भाव नहीं है वैसे ही कर्मयुक्त संसारी जीवों में भी आध्यात्मिक दृष्टि से स्वामि- सेवक भाव नहीं है। सभी जीव अपने-अपने स्वरूप के स्वामी हैं। जीव स्वतंत्र है, कर्म भी स्वतंत्र है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव और मुक्त जीवों में स्वरूप की दृष्टि से समानता है । इसीलिए स्थानांगसूत्र में कहा गया है- एगे आया ( स्वरूपापेक्षा सभी आत्माएँ एक (समान) हैं। )
(३) जीव को किसने बनाया है? इस प्रश्न का उत्तर है-न केणइ कयं (जीव को किसी ने नहीं बनाया है) किन्तु आकाश की तरह अकृत्रिम है। कई लोग कहते हैं - ईश्वर ने जीव को बनाया है, परन्तु यह कथन भी सिद्ध नहीं होता; इसकी चर्चा हम कर्मविज्ञान में कर चुके हैं। यह सार्वभौम नियम है कि जो वस्तु उत्पन्न होती है,
१. (क) औपशमिकादि-भाव-पर्यायो जीवः पर्यायादेशात् पारिणामिक भाव-साधनो निश्चयतः। औपशमिकादिभावसाधश्च व्यवहारतः।
- तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/७/३८/३८
(ख) अन्यासाधारणा भावा: पंचौपशमिकादयः ।
स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते ॥
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- तत्त्वार्थसार
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