________________
१५४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
उसका विनाश सुनिश्चित है। इसलिए जीव (आत्मा) को यदि उत्पन्न हुआ (बनाया) माना जाए तो उसका भी नाश होना चाहिए। परन्तु आत्मा त्रिकालस्थायी, अविनाशी और शाश्वत है; इसीलिए वह अकृत्रिम है। ___(४) जीव कहाँ रहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में कहा- सरीरे लोए व हुंति', अर्थात् जीव अपने-अपने सरीर में अथवा लोक में रहते हैं। इस उत्तर में सामान्य
और विशेष, दोनों अपेक्षाओं से जीव के अवस्थान का विचार किया गया है। सामान्यापेक्षया विचार करते हुए बताया कि जीव लोक में रहते हैं; अलोक में नहीं, चाहे वे बन्धक हों या अबन्धक, संसारस्थ हों या मुक्त हों। अलोक में तथा-स्वभाव के कारण धर्मास्तिकाय आदि तथा जीवों और पुद्गलों का अभाव है। विशेषापेक्षया विचार करने पर जीव अपने-अपने यथायोग्य प्राप्त औदारिक आदि शरीर में रहता है, अपने शरीर से बाहर नहीं, क्योंकि शरीर के परमाणुओं के साथ आत्मप्रदेशों का नीर-क्षीरवत् अन्योन्यागमरूप परस्पर एकाकार सम्बन्ध है। कारण यह है कि जैसे पानी और दूध एकाकार रूप में रहे हुए हैं, वैसे ही जीव (आत्मा) और शरीर दोनों एक-दूसरे के साथ घुले-मिले एकाकार-से रहे हुए हैं। उनमें यह जीव है, यह शरीर है, ऐसा पृथक्करण नहीं हो पाता।
(५) जीव कितने कालपर्यन्त जीवरूप में रहेगा, उसका नाश कब होगा?-यह पांचवाँ प्रश्न है। इसका उत्तर है-'सव्वकालं तु।' अर्थात्-जीव सदैव जीव रूप में रहेगा, उसका कदापि नाश नहीं होगा। जीव अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा।
(६) जीव औपशमिक आदि कितने भावों से युक्त होता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि कितने ही जीव पाँच भावों से, कितने ही चार भावों से और कितने ही तीन भावों से और कई दो भावों से युक्त होते हैं। इसका स्पष्टीकरण तथा पृथक्पथक विश्लेषण पिछले प्रकरण में किया गया है।
१. (क) देखें-पंचसंग्रह भा. २ गा. २/३ का विवेचन पृ.५. (ख) किं जीवा? उवसमाइएहिं भावेहिं संजुयं दव्वं।
कस्स सरूवस्स पहू केणंति? न केणइ कया उ॥२॥ कत्थ? सरीरे लोए व हुंति, केवच्चिरं? सव्वकालं तु। कइ भावजुया जीवा? दुग-तिग-चउ-पंच-मीसेहिं ॥३॥
-पंचसंग्रह भा. २ गा. २, ३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org