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१५२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
मनुष्य जाति को ले लीजिए। उनमें भी एक से दूसरे की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता में एकरूपता और समानता नहीं मिलेगी। अपितु अनेकविध विभिन्नता ही दृष्टिगोचर होगी। कर्मावरण की तरतमता के कारण उनमें आत्मिक गुणों . के विकास और अभिव्यक्तिकरण में भी अवश्यमेव तरतमता दृष्टिगोचर होगी। जैसे-कोई मूर्ख है तो कोई बुद्धिमान् है। किसी में ज्ञान का विकास अधिक है तो किसी में अत्यल्प है। कोई शरीर से सशक्त एवं बलिष्ठ है तो कोई बिलकुल अशक्त एवं दुर्बल है। इन्हीं विविध स्थितियों को लेकर उनमें न्यूनाधिकता का व्यवहार होता है। विकास की न्यूनाधिकता का मूल कारण परिणाम यानी उनके भाव हैं। औदयिक आदि पांच प्रकार के भावों द्वारा जीवों के विकास की अल्पाधिकता का बोध हो जाता है। इसलिए जीवस्थान के माध्यम से उन अनन्त-अनन्त जीवों का १४ भागों में . वर्गीकरण करके उनमें गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्तां, बन्धहेतु, अल्पबहुत्व, भाव और संख्या की प्ररूपणा की गई है।
जीवस्थान में जीव से सम्बन्धित कुछ प्रश्न और उत्तर पूर्वोक्त सभी अवस्थाएँ जीवों की होती हैं, इसलिए अनन्त जीवों को चौदह भागों में वर्गीकृत करके सर्बप्रथम जीवस्थान की प्ररूपणा की गई है। जीवस्थान के माध्यम से जीवों के बाह्य-आभ्यन्तर विकास-ह्रास के निरूपण का विचार आया तो 'पंचसंग्रह' में सर्वप्रथम जीव के वस्तुस्वरूप को जानने की दृष्टि से छः आवश्यक प्रश्न उठाये गए हैं-(१) जीव क्या है? (२) किसका प्रभु-स्वामी है? (३) (जीव को) किसने बनाया है? (४) जीव कहाँ रहता है? (५) वह कितने काल तक रहने वाला है? (६) जीव कितने भावों से युक्त होते हैं?
(१) जीव क्या है ? इसका समाधान पंचसंग्रह में बताया गया है। जीव क्या है? इस प्रश्न का समाधान वहाँ दिया गया है-जीव का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न को उठाने का कारण यह है कि स्वरूप बोध होने के पश्चात् ही उस वस्तु का विशेष विचार या उसकी विशेषता का-असाधारणता का विचार किया जाना सम्भव है। अतः जीव एक द्रव्य होने के कारण प्रत्येक द्रव्य का लक्षण है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो, वह द्रव्य है। परन्तु यह लक्षण तो अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है। अतः जीव की-सांसारिक जीव की विशेषता को व्यक्त करने के लिए कहा गया-जीव औपशमिक, औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भावों से युक्त द्रव्य है। यहाँ एक प्रश्न और उठाया गया है कि औदयिक भाव निगोद से
१. कर्मग्रन्थ भा.३ प्रस्तावना (मरुधरकेसरीजी), पृ. ४
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