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१५० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
संसारी-जीवों के मुख्य तीन रूप : तीन स्थान वस्तुतः संसारी जीवों के मुख्यतया तीन रूप हैं-पहला बाह्य शरीर तथा उससे सम्बन्धित रूप, दूसरा बाह्य और आन्तरिक (आध्यात्मिक) दोनों का मिश्रित रूप तथा तीसरा है-आन्तरिक भाव विशुद्धि की न्यूनाधिकता का रूप। इन तीनों रूपों की विविध अवस्थाओं को प्रदर्शित करने हेतु कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने क्रमशः जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान की प्ररूपणा की है। संसारी जीव इन तीनों ही स्थानों वाले हैं। अतएव इनका परस्पर एक दूसरे से गाढ़-सम्बन्ध है। इसलिए जीवस्थानवर्ती १४ प्रकार के जीवों में शरीर, गति, इन्द्रिय आदि कौन-कौन से हैं? इस जिज्ञासा के साथ-साथ इनमें गुणस्थान कितने हैं? तथा गुणस्थानों में जीवस्थानवर्ती कौन-कौन से जीव हैं? इन जिज्ञासाओं की पूर्ति इन तीनों स्थानों के माध्यम से की जाती है। . __यही कारण है कि जीवस्थान के बाद मार्गणास्थान और उसके साथ ही गुणस्थान की प्ररूपणा करके संसारस्थ अनन्त जीवों की बाह्य और आन्तरिक तथा स्वाभाविक और वैभाविक सभी अवस्थाओं को सूचित किया गया है। ताकि जिज्ञासु और मुमुक्षु जीव कर्मबन्ध से लेकर कर्ममुक्ति की तमाम अवस्थाओं पर विचार करके पूर्ण आत्मविकास की ओर क्रमशः अपना कदम दृढ़तापूर्वक उठा सकें।
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