________________
१४६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ हैं। मार्गणास्थान नामकर्म, मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय आदि भावरूप तथा पारिणामिक भावरूप है और गुणस्थान सिर्फ मोहनीय कर्म के औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभावरूप हैं।
अध्यात्मविद्या में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का स्थान आध्यात्मिक विद्या के अन्य ग्रन्थों में जहाँ सिर्फ आत्मा के शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित स्वरूप का वर्णन किया गया है, वहाँ कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि कर्मविज्ञान विषयक ग्रन्थों में व्यवहारपरायण अध्यात्मजिज्ञासु जनों के लिए आत्मा के बाह्य (शारीरिक, मानसिक) एवं आन्तरिक -आत्मिक अत्यन्त उपादेय एवं परमार्थस्वरूपग्राही दृष्टि खोलने वाला वर्णन है। आशय यह है कि अध्यात्मविद्या के प्रत्येक अभ्यासी की यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आत्मा अपना विकास किस-किस क्रम से और किस-किस प्रकार से करता है? तथा विकास के समय उसे कैसी-कैसी अवस्थाओं का अनुभव होता है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए जीवस्थान और मार्गणास्थान की अपेक्षा गुणस्थान का विश्लेषण अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होता है।
जीवों के बाह्याभ्यन्तर जीवन की विभिन्नताएँ १४ भागों में "संसार में जीव अनन्त हैं। प्रत्येक जीव का बाह्य-आभ्यन्तर जीवन भी पृथक्पृथक् रूप का होता है। शरीर का आकार-प्रकार, रंग-रूप, डील-डौल, रचना, विचारशक्ति, मनोबल इत्यादि विभिन्न बाह्य विषयों में एक जीव की, इतना ही नहीं, एक ही जाति के जीव की दूसरे जीव से, या अपनी ही जाति के जीव से भिन्न होती है, न्यूनाधिक विकासरूप होती है; न्यूनाधिक अवस्थासूचक होती है। और ये सब विभिन्नताएँ कर्मोपाधिक होती हैं। अर्थात् यह कर्मजन्य विभिन्नताएँ औदयिक,
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तथा सहज पारिणामिक भाव को लेकर होती हैं। इन अनन्त भिन्नताओं को कर्म-विज्ञानमर्मज्ञ ज्ञानी महापुरुषों ने १४ विभागों में वर्गीकृत किया है। मार्गणा की दृष्टि से इन्हीं १४ विभागों के जो कि जीवों के बाह्य-आभ्यन्तर जीवन से सम्बन्धित हैं, ६२ अवान्तर भेद होते हैं, जिन्हें मार्गणास्थान के माध्यम से निरूपित किया जाता है।
१. कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना (पं. सुखलालजी) पृ. ९.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org