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१४४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
स्वाभाविक-वैभाविक (दूसरे शब्दों में प्राकृतिक-विकृतिक) अवस्थाएँ हैं, वे ही उनके तीन रूप हैं। पहला रूप है-बाह्य शरीर, दूसरा रूप है-शरीर और आत्मा के विकास का मिश्रित रूप और तीसरा रूप है-अन्तरंग भाव विशुद्धि की न्यूनाधिकता। संसारी जीव इन तीनों ही स्थान वाले हैं।
. जीवस्थान के अनन्तर मार्गणास्थान क्यों ? जीवस्थान के अनन्तर मार्गणास्थान का निर्देश इसलिए किया गया है कि जीवों के व्यावहारिक अथवा पारमार्थिक रूप की विभिन्नताओं का ज्ञान या बोध किसी न किसी गति, इन्द्रिय, काय आदि विविध पर्यायों की अन्वेषणा-गवेषणा (मार्गणा) के द्वारा ही किया जा सकता है। इस जन्म-मरणादिरूप संसारचक्र में विद्यमान अनन्तअनन्त जीवों की न तो एक ही गति है, न ही एक जाति है और न ही एक प्रकार की काया है। सभी में विभिन्न प्रकार की विविधताएँ हैं। कोई मनुष्यगति में जी रहा है, तो कोई तिर्यञ्चगति में पशु-पक्षी या एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की योनियों में उत्पन्न है, कोई देवगति में विद्यमान है तो कोई नरकगति में जी रहा है। इसी प्रकार कोई जीव एकेन्द्रिय है, तो कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय कहला रहा है। पंचेन्द्रिय में भी देव, नारक, मनुष्य या तिर्यञ्च के विभिन्न शरीर हैं। उनमें भी कोई औदारिक शरीर को, कोई वैक्रिय शरीर को धारण किये हुए हैं। तैजस और कार्मण शरीर तो समस्त संसारी जीवों के होते हैं। इन और इस प्रकार की विविध, अनेकताएँ जीवों में दिखलाई देती हैं। संसारी जीवों में इन सब दृश्यमान ; विविधताओं, विचित्रताओं तथा विषमताओं आदि का कारण तो कर्म ही है। कर्माधीन होने के कारण ही संसार के अनन्त-अनन्त जीव विभिन्न प्रकार की गति, इन्द्रिय, शरीर योग आदि की न्यूनाधिकता एवं विसदृशता वाले हैं। इतना ही नहीं, उनके वैभाविक और स्वाभाविक गुणों की न्यूनाधिकता का कारण भी कर्मसंयोग तथा कर्मवियोग से सम्बन्धित है।
मार्गणास्थान की विशेषता यही कारण है कि मार्गणा कर्मबन्ध से तथा कर्मक्षय से सम्बन्धित होने के कारण मार्गणास्थान में संसारी जीवों की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक भिन्नताओं का वर्गीकरण किया जाता है। मार्गणाएँ जीवों के विकास की सूचक नहीं हैं, अपितु जीवों के स्वाभविक-वैभाविक रूपों का विविध प्रकार से वर्गीकरण करके उनका
१. कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना पृ.४ २. पंचसंग्रह भा. १ प्रस्तावना, पृ. १५
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