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बद्ध जीवों के विविध अवस्था-सूचक स्थानत्रय १४७
गाढ़तम मोहावस्था से पूर्ण मोक्षावस्था तक का विकास क्रम . जीव की मोह और अज्ञान की प्रगाढ़तम अवस्था को कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने निम्नतम अवस्था कही है, और मोहरहित समग्र ज्ञानावस्था को जीव की उच्चतम आध्यात्मिक विकासावस्था मोक्षावस्था कही है। जीव अपने पुरुषार्थ से अपनी निम्रतम अवस्था से शनैः शनैः मोहावरणों को दूर करता हुआ आगे बढ़ता जाता है
और आत्मा के स्वाभाविक गुण ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि का विकास करता जाता है, तथा इस दौरान विकासमार्ग में गति-प्रगति करता हुआ जीव अनेक अवस्थाओं से गुजरता है, इन्हीं क्रमिक अवस्थाओं के सूचक गुणस्थान हैं। अर्थात् इन्हीं अध्यात्म विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान सूचित करता है। इन्हीं क्रमिक असंख्यात अवस्थाओं को कर्म वैज्ञानिक ज्ञानियों ने १४ भागों में विभक्त किया है। जिन्हें कर्मशास्त्रीय भाषा में गुणस्थान कहा जाता है।
- मार्गणास्थान के पश्चात गुणस्थान का निर्देश इसलिये भी मार्गणास्थान के अनन्तर गुणस्थान का निर्देश इसलिये भी किया गया है कि जीव (आत्मा) ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि अनन्त आत्मिक गुणों का पुंज है। वे अनन्त गुण मुक्त (सिद्ध) अवस्था में पूर्णतया विकसित हो जाते हैं किन्तु उससे पूर्व संसारावस्था में विद्यमान जीवों में, चाहे वे किसी भी गति, जाति आदि पर्यायों वाले हों, कर्मावरण के कारण गुणों को अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता दृष्टिगोचर होती है। गुणों की अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता से जनित आत्मा की स्थिति और कर्मावरण के क्षय से क्रमशः विकासोन्मुखी स्वभाव आदि का वर्गीकरण गुणस्थान क्रम द्वारा किया जाना सम्भव है। · यद्यपि मार्गणास्थान द्वारा भी जीवों का वर्गीकरण किया जाता है, किन्तु मार्गणास्थान द्वारा किया जाने वाला वर्गीकरण जीवों की शरीर, इन्द्रिय, काय, योग आदि बाह्य आकार-प्रकारों के साथ-साथ उनके ज्ञान, दर्शन, आदि गुणों की अपेक्षाओं को लिये हुए भी होता है, जबकि गुणस्थानों द्वारा किये हुए वर्गीकरण में जीवों की शारीरिक आदि बाह्य अवस्थाओं की विवक्षा न होकर सिर्फ जीव (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वाभाविक गुणों तथा तत्सम्बन्धित कषाय आदि वैभाविक गुणों की ही मुख्यता रहती है।
मार्गणास्थान द्वारा किया जाने वाला विचार कर्मों की अवस्थाओं के तारतम्य भाव का सूचक नहीं है; किन्तु मार्गणाओं द्वारा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक
१. कर्मग्रन्थ भा. ४ (मरुधरकेसरीजी) से भावांश ग्रहण, पृ. ५
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