________________
बद्ध जीवों के विविध अवस्था-सूचक स्थानत्रय १४३ आसक्ति, तृष्णा आदि होना निश्चित है। रागद्वेष ही कर्म के बीज (मूल) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। जन्म-मरण का मूल अगर कोई है तो कर्म ही है और कहने दीजिए, जन्म-मरणरूप संसार ही दुःखरूप है। ___ कर्म करने वाला जीव स्वयं ही है, उसका आंशिक क्षय, आगमन-निरोध या उसका फलभोग करके सर्वथा क्षय करने वाला भी जीव ही है बांधने वाला भी वही हैं। अतः संसार और मोक्ष दोनों जीव के अपने हाथ में हैं। इन दोनों स्थितियों में जीव तत्त्व मुख्य है। इसलिए संसार की विविध अवस्थाएँ और मोक्ष की स्थिति जीव-तत्त्व के होने पर ही सिद्ध होती हैं। यदि जीव न हो तो किसको होगा-संसारबन्धन और किसका होगा-कर्मबन्धन से मुक्तिरूप मोक्ष? जीव (आत्मा) अनन्त आत्मिक गुणों का अधिकारी, अमूर्त, सत्तावान् पदार्थ है। जीव (आत्मा) न तो पृथ्वी आदि पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई भौतिक संयोगी पदार्थ है और न तज्जीव-तच्छरीर रूप है। संसारी अवस्था में अपनी योग्यता के अनुरूप प्राप्त शरीर में रहते हुए भी अपनी स्वाभाविक-वैभाविक परिणतियों का कर्ता-भोक्ता होकर भी जीव (आत्मा) निश्चयदृष्टि से केवल उनका ज्ञाता-द्रष्टा है।
इन सब कारणों से जीवस्थान का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। जैसे-मूल के अभाव में वृक्ष के अस्तित्व की संभावना ही नहीं होती और न ही उसकी शाखा प्रशाखाओं की कल्पना या विवेचना की जा सकती है। इसी प्रकार जीव की विद्यमानता के बिना उसकी गति, इन्द्रिय आदि की मार्गणा का अस्तित्व संभव नहीं है। जीव हो तभी तो उसके विषय में मार्गणा की जा सकती है। मकान हो तभी उस पर रंग-रोगन या पेंटिंग किया जा सकता है, वैसे ही जीव हो तभी उसकी विभिन्न अवस्थाएँ, विशेषताएँ या विभिन्नताएँ निरूपित की जा सकती हैं। इसीलिए जीव आधार है, मार्गणा आधेय है। आधार के बिना आधेय का टिकना, सम्भव ही नहीं। इसी कारण मार्गणास्थान से पहले जीवस्थान का निर्देश किया गया है।
समस्त संसारी जीवों के त्रिविध मुख्य रूप 'संसारी जीवों के तीन रूप हैं-पहला रूप जीवस्थान है, दूसरा रूप हैमार्गणास्थान और तीसरा रूप है-गुणस्थान। अर्थात् संसारी जीवों की तीन
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ४ (ख) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्म.च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई-मरणं वयंति॥
___ -उत्तराध्ययन सूत्र ३२ अ. गा.७ २. कर्मग्रन्थ गा. ४, गा. १ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org