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बद्ध जीवों के विविध अवस्थासूचक स्थानत्रय
अनन्तानन्त जीवों की कर्मसम्बन्धित विविध अवस्थाएँ
इस संसार के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है, संसार एक विशाल अजायबघर हो । एक-एक जीव की लाखों-लाखों किस्म की अवस्थाएँ । वे सारी अवस्थाएँ पूर्वबद्ध कर्मबन्ध के कारण होती हैं। उन सब अनन्त - अनन्त अवस्थाओं का एक साथ वर्णन करना सामान्य छद्मस्थ मनुष्य के लिए तो क्या, केवलज्ञानी भगवन्तों और सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकरों तक के लिए अशक्य है। अतः कर्मविज्ञानमर्मज्ञ ज्ञानी पुरुषों ने उन सभी अवस्थाओं को तीन भागों में विभिन्न मार्गणाओं द्वारा प्ररूपित करके यह बतला दिया है कि अमुक जीव किस अवस्था का है, किस गुणस्थान, गति, जाति आदि का है ? उसकी वह अवस्था स्वाभाविक है अथवा वैभाविक, औपाधिक या कर्मकृत है? तथा उसकी कौन-कौन सी अवस्थाएँ स्वाभाविक होने से उपादेय एवं स्थायी हैं, तथा कौन-कौन सी अवस्थाएँ कितनें अंशों में अस्थायी, अल्पस्थायी, अधिक स्थायी हैं तथा हेय, उपादेय या कथंचित् हेय- लक्ष्यी उपादेय हैं? साथ ही उन कर्मविज्ञान - विशेषज्ञों ने यह भी बतलाया हैं कि आत्मा का स्वभाव प्रायः ऊर्ध्वगमन, ऊर्ध्वारोहण या विकास करने का है। अतएव वह अपने स्वभावानुसार कब, किस प्रकार, किन-किन साधनों से औपाधिक या वैभाविक अवस्थाओं का त्याग करके अपनी स्वाभाविक आत्मशक्ति द्वारा स्वाभाविक अवस्थाओं को उपलब्ध करता है? इसके अतिरिक्त यह भी प्ररूपित किया गया है कि इन सब अवस्थाओं में जीव की कैसी-कैसी स्थितियाँ
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