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१२६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ क्रिया या प्रवृत्ति से बंधे हुए कर्म की स्थिति और रस बढ़े, उसे उद्वर्तनाकरण और जिस क्रिया या प्रवृत्ति से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं रस में कमी हो जाए, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं। संक्षेप में स्थिति और अनुभाग का बढ़ना उद्वर्तना है, इन दोनों का घटना अपवर्तना है। ये दोनों क्रियाएँ बन्ध के बाद सत्ता की अवस्था में होती हैं। इन्हें दिगम्बर परम्परा में क्रमशः उत्कर्षण और अपकर्षण भी कहते हैं। उत्कर्षण का अर्थ-उन्नतिशील होना है। तात्पर्य यह कि बन्ध के समय कषायों की तीव्रता-मन्दता आदि के अनुसार स्थिति और अनुभाग होते हैं। कर्म से बंधी हुई स्थिति और अनुभाग में किसी तीव्र अध्यवसाय विशेष के द्वारा बढ़ाना उत्कर्षण (उद्वर्तना) है, इसके विपरीत उत्कर्षण की विरोधी अवस्था अपकर्षण है। सम्यग्दर्शनादि से पूर्व-संचित कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को क्षीण कर देना अपकर्षण है। इसका दूसरा नाम अपवर्तना है। उद्वर्त्तना के द्वारा कर्म स्थिति का दीर्धीकरण एवं रस का तीव्रीकरण होता है, जबकि अपवर्तना के द्वारा कर्मस्थिति का अल्पीकरण (स्थितिघात) और रस का मन्दीकरण (रसघात) होता है।
उद्वर्तना और अपवर्तना का रहस्य आशय यह है कि बद्धकर्मों की स्थिति और अनुभाग (रस) का निश्चय कर्मबन्ध के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता है। किन्तु जैन-कर्मविज्ञान के अनुसार-यह नियम एकान्त नहीं है। कोई सत्त्वशाली आत्मा नवीन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति (काल-मर्यादा) और अनुभाग (काषायिक रस की तीव्रता) में वृद्धि भी कर सकता है। इस प्ररूपणानुसार पूर्वबद्ध कर्मों का स्थिति-विशेष और अनुभाव (अध्यवसाय) विशेष का बाद में किसी प्रबल अध्यवसाय-विशेष द्वारा बढ़ जाना उद्वर्तना या उत्कर्षण है। ठीक इसके विपरीत पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में नवीन कर्मबन्ध के समय कम कर देना-अपवर्तना या अपकर्षण है।
अशुभ कर्म का बन्ध करने के पश्चात् जीव यदि किसी शुभ अध्यवसाय, सद्गुरु या सद्धर्म से, सत्संग से या सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से प्रेरित होकर सत्कार्य करता है, तो उसके पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग-फलदान शक्ति घट जाती है, तब उसे अपवर्तनाकरण कहा जाता है। दिगम्बर धर्मग्रन्थों के अनुसार-राजा श्रेणिक ने एक जैन मुनि के गले में धर्म-सम्प्रदाय द्वेषवश मरा हुआ साँप डाल दिया। इस दुष्कर्म बन्ध के निमित्त से उसने सप्तम नरक का आयुष्य बाँध लिया था। किन्तु बाद में भूतपूर्व बौद्ध-अनुयायी राजा श्रेणिक को अपने उक्त कार्य पर पश्चात्ताप हुआ। उसने भगवान् महावीर के समवसरण में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया, तब शुभ
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